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शिवभूति की कथा
इसमें स्थविरकल्प है. सो नित्य हैं, क्योंकि इसमें तैयार होकर शेष कल्पों के योग्य होते हैं । उसमें तीर्थ भी इसके द्वारा ही चलता है। आज कल के दुर्बल संघयण वाले पुरुषो को यही कल्प उचित है । इसलिये इसमें उद्युक्त रहना चाहिये।
इस प्रकार आचार्य के अनेक उपायों से समझाने पर भी, गाढ़ अभिमान के वश में होकर इस तरह जबाब देने लगा कितुम मंदसत्व वाले, और सुख-लंपट होकर के जो कि उद्यम नहीं करते । भला मैं सामर्थ्यवान् होते हुए किस लिये प्रमादशील हो? इस प्रकार बोलता हुआ, और अलग होकर नाना प्रकार से मना करने पर भी नग्नभाव से शिवभूति शीघ्र रवाना हुआ ।
उसकी उत्तरा नामक छोटी बहिन थी | वह उसके स्नेह से प्रवजित हुई थी। उसे जाता देखकर सोचने लगी कि-मेरे भाई को ठीक परलोक सुधारने का इस प्रकार अच्छा उपाय मिला जान पड़ता है। ऐसा सोचकर वह भी उसोके समान नग्न होकर उसके पीछे चली। तब वह लज्जा करती है, ऐसा सोचकर वेश्या ने उसके उपर साड़ी डाली । उसकी अनिच्छा देखकर भाई ने कहा कि-हे सुतनु ! देवता की दी हुई इस एक साड़ी को तू मत छोड़ । इस प्रकार उसकी आर्याएँ एक साड़ी वाली हुई।
इस प्रकार मोह से अंध हुआ शिवभूति कष्टानुष्ठान आरंभ करके मिथ्यादृष्टि तथा दुर्गति और दुर्भाग्य का भागी हुआ ।
जिससे आगम में भी कहा है कि-बोटिक मत शिवभूति, और उतरा का अपनी उहा (मति कल्पित विचारणा) से प्ररूपित यह मिथ्यादर्शन रथवीरपुर में पहिला उत्पन्न हुआ।