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आर्य मंगु की कथा
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अर्थात् प्रमादवान् हो (यहां मतु, प्रत्यय को आलु, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त, मन्त, इत्त, इर और मण इतने आदेश होने से इल्ल आदेश लिया है) ऐसे प्रमादी को विद्या के समान यह पारमेश्वरी दीक्षा सिद्ध नहीं होती, और उलटा भारी अपकार अर्थात् अनर्थ करता है। ___ भावार्थ यह है कि-जैसे इस जगत में प्रमादवाले साधक को विद्या सिद्ध नहीं होती और उलटा ग्रहसंक्रमादिक अनर्थ उत्पन्न कर देती है वैसे ही शीतल-विहारी को जिन-दीक्षा भी सुगति नहीं देती। इतना ही नहीं, पर देव सम्बन्धी दुर्गति तथा दीर्घभवभ्रमणरूप अनर्थ करती है । आर्यमंगु के समान । ___कहा भी है कि-शीतल-विहार करने से निश्चयतः भगवान् की आशातना होती है, और आशातना से क्लेशयुक्त दीर्घ-संसार बढ़ जाता है क्योंकि कहा जाता है कि-तीर्थकर,प्रवचन(संघ), श्रूत और महाऋद्धिवान् गणधर आचार्य की बारम्बार आशातना करने वाला अनन्त संसारी होता है । अतएव साधु को अप्रमादी होना चाहिये।
आर्यमंगु की कथा इस प्रकार हैयहां आर्यमंगु नामक आचार्य थे । वे स्वसमय और परसमय रूप सोने की परीक्षा करने में कसौटी समान थे तथा अति भक्तियुक्त और शुश्रूषावाले शिष्य को सूत्रार्थ देने में तत्पर रहते थे। वे सद्धर्म की देशना से अनेक भव्यलोगों को प्रतिबोधित करते हुए, एक समय विहार करते-करते मथुरा नगरी में आये। __ वे वहां सख्त प्रमादरूप पिशाच से घिर कर तपश्चरण को छोड़ त्रिगारव में प्रतिबद्ध रहकर श्रावकों में ममत्व करने लगे।