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शक्यानुष्ठानारंभ रूप पांचवा लिंग
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बल से करे सो अवसन्न कहलाता है । तथा क्रियान्तर विरहित रहे, अर्थात् एक क्रिया के बीच में दूसरी क्रिया का अन्तर न करेअर्थात् प्रतिलेखना आदि करते स्वाध्याय न करे और स्वाध्याय करते वस्त्रपात्र आदि का परिकर्म अथवा गमन आदि न करे इसीसे आगम में कहा है कि___ इन्द्रियार्थ (विषय) छोड़कर और पांच प्रकार का स्वाध्याय छोड़कर, तन्मूर्ति (तन्मय) और तत्पुरस्कार उसी को आगे करने बाला होकर उपयोग रखकर विहार करना।
यथासूत्र अर्थात् सूत्र का उल्लंघन न करके-जैसा सूत्र में हो वैसा | वहां सूत्र सो गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली (चौदहपूर्वी) तथा पूर्ण दशपूर्वी का रचा हुआ हो सो जानो। क्योंकि-इतने निश्चयतः सम्यग्दृष्टि होने से सत्य बात ही के बोलनेवाले होते हैं। तथा उनसे मिलता हुआ दूसरे का रचा हुआ भी प्रामाणिक ही माना जाता है किन्तु न मिलता हुआ प्रामाणिक नहीं माना जाता । इस प्रकार सर्व क्रियाओं में अप्रमादी होकर जो आचरण करता है वह यहां चारित्रवान् है।
इस प्रकार क्रियाओं में अप्रमादरूप भाव-साधु का चौथा लिंग कहा । अब शक्यानुष्टानारंभ रूप पांचवे लिंग की व्याख्या करते हैं:
संघयणादणुरूवं प्रारंभइ सव्वमेवणुट्ठाणं । बहुलाभमप्पछेयं सुयसारबिसारो सुजइ ॥११॥
मूल का अर्थ-संघयण आदि को अनुरूप शक्य अनुष्ठान जो कि-अति लाभ देनेवाला और कम नुकसान वाला हो, उसी को श्रुत के सार को जाननेवाले सुयति आरम्भ करते हैं।