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शक्यानुष्ठानारंभ
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असंयम होता है और चिकित्सा न करावे तो अवधि पाकर मर जाने से संयम में अन्तराय होता है । इसीलिए कहा है कि
वही तप करना कि-जिससे मन बुरा चिन्तवन न करे। जिससे इन्द्रियों को हानि न हो तथा जिससे योग (मन, वचन, काया के व्यापार) रुक न जावे । तथा दूसरे बहुत से समानधार्मिक शिष्य उसे करने का मनोरथ कर सके उस प्रकार, क्योंकिशक्यानुष्ठान में बहुतों को करने की इच्छा होती है, किन्तु अशक्य में नहीं होती । तथाशब्द समुच्चयार्थ है । उसे इस भांति जोड़ना कि-और शक्ति होते विशेष क्रिया अर्थात् प्रतिमावहन की तुलना आदि भी करे, शक्ति को निष्फल न खोवे । विशेष क्रिया कैसी करे सो कहते हैं
गुरु गच्छुन्नइहेउ कयतित्थपभावणं निरासंसो। अज्जमहागिरि वरियं सुमरंतो कुणह सक्किरियं ॥११७॥
मूल का अर्थ-आर्यमहागिरि का चरित्र स्मरण करके आशंसा रखे बिना गुरु और गच्छ की उन्नति करनेवाली और तीर्थ की प्रभावना बढ़ानेवाली सक्रिया करे ।
टीका का अर्थ-गुरु और गच्छ की उन्नति अर्थात् धन्य है इन गुरु को अथवा गच्छ को कि-जिनके साथ में ऐसे दुष्करकारी दृष्टि में आते हैं। ऐसी लोक प्रशंसारूप उद्दीपना, उसकी कारणभूत, तथा तीर्थप्रभावना हो उस प्रकार अर्थात् जिनशासन का साधुबाद हो उस प्रकार-अर्थात् 'सर्व धर्मों में यह जिनधर्म अधिक सुन्दर है । मैं भी इसी को करूगा"-इस भांति उसका आदेयत्व बढ़ानेवाला हो, सो प्रभावना है। निराशंस रहकर अर्थात् इस भव व परभव की आशंसा से अलग रह कर, क्योंकि कहा है कि