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क्रियाओं में अप्रमाद
कहा भी है कि-समितिवान् हो सो निश्चय गुप्त गिना जाता है । गुप्तिवान् में समितिवान्पन की भजना है । क्योंकि - कुशलवाणी बोलता हुआ वचनगुमिवान् भी गिना जाता है और सांमतिवान् भी गिना जाता है । तथा गुप्तियों में अप्रवीचार और प्रवीचार रूप अर्थात् प्रवृत्ति - निवृत्ति रूप इसमें उपयुक्तता सो प्रवचन मातृ नामक अध्ययन में कही हुई विधि से जानना चाहिये | अधिक क्या कहा जाय ? संक्षेप में अवद्य हेतु अर्थात् पाप के कारण भूत प्रमादचरित को ठीक-ठीक स्थिरचित्त रख कर वर्जन करे, यह बात स्पष्ट अर्थवाली ही है ।
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कालंमि अणू हियं किरियंतर विरहिश्रो जहासुत्त । आयरइ सव्वकिरियं श्रपमाई जो इह चरित्ती ॥११४॥
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मूल का अर्थ तथा सर्व क्रिया को यथासमय अन्यूनाधिक रीति से अन्य क्रिया छोड़कर सूत्रानुसार आचरे, वह अप्रमादी चारित्रीय है ।
टीका का अर्थ- सर्व क्रिया का यथासमय अन्यूनाधिकता से अन्य क्रिया छोड़कर सूत्र के अनुसार आचरण करे सो अप्रमादी चारित्र है । काले याने अवसर पर अर्थात् जिस प्रतिलेखन आदि क्रिया का जो प्रस्ताव (समय) हो उस समय - अवसर के बिना खेती आदि भी इष्टसिद्धि नहीं देती । अतः अवसर पर समस्त क्रिया करे ऐसा कहा है । वह किस प्रकार की सो कहते हैं
अन्यूनाधिक अर्थात् प्रमाद्वश कम भी न करे और शून्यचित्त रख कर अधिक भी न करे । क्योंकि - वैसा करने से अवसन्न कहलाता है । पूज्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने भी कहा है कि:- "आवश्यकादिक न करे, अथवा न्यूनाधिक करे, अथवा गुरु के वचन