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अप्रमादी का स्वरूप
मूल का अर्थ-प्रमत्त की प्रतिलेखना आदि चेष्टा छः काय की विघात करनेवाली कही हुई है। अतः सुविहित ने अप्रमादी होना चाहिये। ____टीका का अर्थ-प्रत्युपेक्षणा करना सो प्रतिलेखना जानो। आदिशब्द से गमनादिक लेना । तद्रप चेष्टा अर्थात् क्रिया वा व्यापार । क्योंकि ये तीनों शब्द एक अर्थ वाले हैं। वह प्रमादी साधु की षटकाय की विघातक होती है । ऐसा श्रुत अर्थात् सिद्धान्त में कहा हुआ है।
प्रतिलेखना करते हुए जो परस्पर बातचीत करे अथवा जनपद कथा करे अथवा प्रत्याख्यान दे अथवा वांचे व वाचना दे तो वह प्रतिलेखना में प्रमत्त हो कर पृथ्वी, अप, तेजस, वायु, वनस्पति और त्रस इन षटकायों का विराधक होता है। क्योंकि-वैसा करते जो घड़ा आदि दुलजाय तो मिट्टी, अग्नि वायु और कुन्थु आदि तथा पानी में रहे हुए त्रस जीव और पानी के जीवों की (विराधना होती है ) तथा उल्मुक का संघट्टा होने से उसकी विराधना होती है। ___ इस प्रकार द्रव्य से छःहों काय का विराधक गिना जाता है और भाव से जिस काय की विराधना करे उसीका विराधक गिना जाता है, परन्तु उपयुक्त साधु कदाचित् विराधना करे तो भी अवधक (अघातक-अविराधक) ही है, इत्यादि । अतः सुविहित अर्थात उत्तम अनुष्ठान वाले मुनि ने सर्व व्यापार में अप्रमस होना चाहिये।
अब कैसा होने पर अप्रमादी हो, सो कहते हैंरक्खइ वएसु खलियं उवउत्तो होइ समिइगुत्तीसु , बज्जा अवजहेउं पमाय वरियं सुथिरचित्तो ॥११३