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क्रियाओं में अप्रमाद पर
तथा भक्तजनों के निरन्तर दिये हुए उत्तम अन्न और वस्त्र के लोभ से उद्यत विहार छोड़कर चिरकाल तक वहों पड़े रहे। इस प्रकार साधुपन में खूब शिथिल हो सख्त प्रमाद को छोड़े बिना समय पर मर कर, उसी नगर के निर्धमन में (पानी निकलने के मागे में) यक्ष रूप से उत्पन्न हुए।
बह ज्ञान द्वारा अपने पूर्वभव को जानकर सोचने लगा किहाय-हाय ! मैं पापी प्रमादरूप मदिरा में कैसा मत्त बन गया किदारिद्र नाशक महानिधान के समान प्रतिपूर्ण पुण्य से मिलते जिनमत को पाकर भी मैंने उसे कैसा विफल किया ? मनुष्यक्षेत्र मनुष्यजाति आदि धर्मसामग्री पाकर भी हाय-हाय ! मैंने प्रमाद से खो दी। अतः अब उसे पुनः कैसे पाऊंगा? ____ अरे निराश पापी जीव ! उस समय तूने शास्त्र के अर्थ का ज्ञाता होकर भी, ऋद्धिगारव और रसगारव की विरसता क्यों न जानी ? चौदह पूर्वधारी भी प्रमाद से निगोद में जाते हैं। इतना भी हे पापी जीव ! तू ने उस समय नहीं स्मरण किया ?
धिक्कार है ! मेरी बुद्धि की सूक्षमता को, मेरी अनेक शास्त्रों में रही हुई कुशलता को और केवल परोपदेश करने ही में रही अत्यन्त पंडिताई को ।
__इस प्रकार वह परम निर्वेद पाकर अपने प्रमाद के दुर्विलसित की निन्दा करता हुआ, कैदखाने में पड़ा हुआ हो, वैसे दिने व्यतीत करने लगा। अब उस मार्ग में स्थंडिल को जाते अपने शिष्यों को देखकर उनके प्रतिबोध के हेतु वह अपनी प्रतिमा के मुख में से लम्बी जीभ निकाल कर (खड़ा) रहा। उसे देखकर वे मुनि समीप आकर यह बोले कि-जो कोई यहां देव, यक्ष,