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क्रियाओं में अप्रमाद
मूल का अर्थ-व्रत में स्खलित न करे, समिति गुप्ति में उपयोग रखे, पाप के हेतु प्रमादाचरित को स्थिरचित्त होकर वर्जन करे।
टीका का अर्थ-व्रत में स्खलित अर्थात् अतिचार को अकरणीय जानकर त्याग करे। वहां प्राणातिपातविरति में त्रस स्थावर जीवों का संघटन, परितापन और उपद्रावण न करे । मृषावाद विरति में सूक्ष्म अर्थात् अनाभोगादिक से और बादर अर्थात् वंचनाभिप्राय से बोलने से मृषावाद का वर्जन करे । अदत्तादानविरति में सूक्ष्म अर्थात् आज्ञा बिना रहने आदि का न करे और बादर याने स्वामी, जीव, तीर्थकर और गुरु का अनुज्ञात न किया हुआ न ले और न भोगे । चौथे व्रत में वसति, कथा, निषद्या, इंद्रिय, कुड्यंतर, पूर्वक्रीडित, प्रणीतभोजन, अतिमात्र आहार और विभूषण ये नव ब्रह्मचर्य की गुप्तियां है । इनके सहित ब्रह्मचर्य का पालन करे ।
पांचवें व्रत में सूक्ष्म याने बाल आदि की ममता न करे और बादर याने अनेषणीय आहार आदि न ले। क्योंकि-अनेषणीय लेना परिग्रह है । ऐसा कहा हुआ है । अथवा मूर्छा से अधिक उपकरण धारण न करे, क्योंकि-मूर्छा परिग्रह है, ऐसा कहा हुआ है । रात्रिभोजनविरति में सूक्ष्म याने मिठाई (शुष्कसन्निधि) भी वासी न रखे। बादर याने दिन में लिया दिन में खाया, दिन में लिया रात्रि में खाया, रात्रि में लिया दिन में खाया, रात्रि में लिया रात्रि में खाया, इस भांति रात्रिभोजन न करे । इस प्रकार सर्व व्रतों में स्खलित का रक्षण करे। वैसे ही उपयुक्त अर्थात् सावधान हो, समितियों में अर्थात् प्रविचाररूप अर्थात् प्रवृत्तिरूप रीतियों में।