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सुनंद राजर्षि की कथा
गुरु को वन्दना करता है, तथा श्रु त-व्यवहार से जांच कर लाया हुआ आहार कदाचित् आधाकर्मी हो तो भी श्रुत-व्यवहार को प्रमाण रखने के हेतु केवली जीमते हैं।
जैसे अभागा मनुष्य निधान में पड़े हुए धन को भी खोदकर न निकालते केवल प्रार्थना करता रह कर नाश को प्राप्त होता है, वैसे ही यहां जो प्रत्येकबुद्ध की लक्ष्मी प्राप्त करने की प्रार्थना करता है, उसके भी यही हाल होते हैं । और तथाभव्यता ही से मोक्ष मिलता है । अतः दुष्कर क्रिया करने का क्या काम है ? ऐसा कहना भी ठीक नहीं, कहा भी है कि-देवपूज्य चतुर्ज्ञानी तीर्थकर जानते ही हैं कि-मुझे निश्चय सिद्धि ही को जाना है। तथापि बलवीर्य गोपन किये बिना यथाशक्ति उद्यम करते रहते हैं। इस प्रकार लगभग संसारसागर के पार पहुँचे हुए तीथंकर भी उद्यम करते हैं, तो फिर दूसरों को यहां कौनसा अन्देशा है।
इस प्रकार हृदय में उत्पन्न हुए कुग्रह को टालने के लिये मन्त्र समान गुरु की वाणी सुनकर सुनन्द साधु प्रज्ञापनीय और भाग्यवान होने से अपने असद्ग्रह को छोड़कर गुरु से आलोचना लेकर विशेष निश्चल मन रख निष्कलंक चारित्र पालने लगा। वह दीर्घकाल तक चारित्र का पालन कर ध्यानाग्नि से कर्मवन को जला, अज्ञानरूप अन्धकार को सूर्य के समान दूर करके सिद्धिपद को प्राप्त हुआ।
इस भांति धर्म में मन को स्थिर करने वाला सुनन्द-राजर्षि का चरित्र सुनकर मुमुक्षजनों ने असद्ग्रह को हटाने के लिये प्रज्ञापनीयपन धारण करना चाहिये।
इस प्रकार सुनन्द राजर्षि की कथा पूर्ण हुई।