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प्रज्ञापनीय पर
अर्थात् यह बिचारा दुर्गति को न जाये, इस भांति अनुग्रहबुद्धि द्वारा प्रेरित होकर सूत्रविधि से अर्थात् आगम में कही हुई युक्तियों से समझाते हैं. किन्तु तभी कि-जब वह उनको प्रज्ञापनीय अर्थात् प्रज्ञापन करने योग्य जान पड़े अन्यथा अप्रज्ञापनीय को तो सर्वज्ञ भी नहीं समझा सकता।
सोवि असग्गहचाया मुविसुद्ध देसणं चरितं च । पाराहिउं समत्थो होइ सुह उज्जुभावाभो ॥१०।। मूल का अर्थ-वह भी असद्ग्रह का त्याग करके सरलभाव से सुखपूर्वक विशुद्ध दर्शन और चारित्र का आराधन करने को समर्थ होता है। ___टीका का अर्थ-वह भी प्रज्ञापनीय मुनि सुनंद राजर्षि के समान असग्रह का त्याग करके अर्थात् स्वकल्पित बोध छोड़कर सुविशुद्ध अर्थात् अतिनिर्मल सम्यक्त्व चारित्र तथा च शब्द से ज्ञान व तप का सुखपूर्वक आराधन करने को समर्थ होता है, क्योंकि-वह आजैवगुणवाला होता है।
सुनन्दराजर्षि की कथा इस प्रकार है । यहां कांपिल्यपुर का सुनन्द नामक राजा था । वह अतिप्रबल प्रताप से सूर्य को भी जीता हुआ था तथा दुश्मनरूपी कंद को समूल उखाड़ने वाला था। उसके वज्रायुध नामक प्राण से भी अधिक प्रिय एक मित्र था। वह शुद्ध श्रावक-धर्म पालने में उद्यत और सात तत्त्वों का ज्ञाता था। . अब एक समय उतावला आने से उपजे हुए प्रबल श्वास से रुधे हुए कंठ के द्वारा सीमारक्षक राजा को इस प्रकार कहने