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प्रज्ञापनीय पर
दुर्जय दुश्मनों के हाथियों का दल भंग करने में सिंह समान मेरे सन्मुख इस प्रकार रणकर्म को अधर्म क्यों ठहरावें । इसीलिये विना बिचारे कुछ भी बोलने वाले मनुष्य यहां बुलबुलों से भी हलके होते हैं और पराभव पाते हैं।
यह कहकर भालस्थल पर भ्रकुटी चढ़ा राजा ने शीघ्र ही दुश्मनों को डराने वाला जय डंका बजवाया । तब उसके शब्दों के फेलते ही चतुरंग सैन्य एकत्रित हुआ । वह उसने साथ में लिया और अग्रसेन्य का नायकत्व वज्रायुध को दिया । पश्चात् वह बिना विलम्ब के प्रयाण करता हुआ शत्रु राजा के मंडल में पेठा, तो उसे आता देखकर भीम ही शोघ्र सन्मुख आया।
अब वहां उनके दोनों सैन्यों का महायुद्ध जमा । जिसमें योद्धाओं की ललकार से कायर लोग डर कर भागते थे। व मरे हुए हाथी, घोड़ों ओर सुभटों से रास्ता भरजाने से लोग विस्मित हो जाते थे। वहां को बसति साचने लगी कि- यह तो सहसा प्रलयकाल हो आया जान पड़ता है इस प्रकार उनका युद्ध चला। अब थोड़े हो समय में शत्रु के सुभटों ने अवसर देखकर सुनन्द के सैन्य को, जैसे सूर्य की किरणे अन्धकार को तोड़ती है उस भांति तोड़ डाला । और वज्रायुध, जयकु जर तथा शत्रुजय आदि राजा रणभूमि में गिर पड़े। इस बात को सुनन्द राजा को भी खबर हुई। ___ अब उसके मन्त्री उसे कहने लगे कि हे देव ! अब भी लड़ाई बन्द कीजिए । दुश्मनों के मनोरथ पूर्णमत कीजिए तथा अपनी शक्ति का विचार करिये। क्योंकि-बलविरुद्ध कार्य क्षय का मूल होता है। ऐसा चतुरजन कहते हैं । अतः किसी भी प्रकार से अपना बचाव करना चाहिये । हे देव ! राज्यश्री तो पुनः भी परा.