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प्रवरश्रद्धा पर
अवम-दुष्काल में रहने से ये शिष्यगण खेद पायेंगे । और मैं जंघा बल से रहित और दुर्बल शरीर होने से अन्यत्र चलने को अशक्त हूँ, अतएव अकेला यहीं रहूँगा। .
यह कहकर उन्होंने मुनियों को कहा कि-हे वत्सों ! तुम भी सदैव स्वच्छ आशयवान् रहकर कुलवधू की भांति इन गुरु को कभी मत छोड़ना । इन्हीं के प्रसाद से तुम सहज में संसार-समुद्र पार कर सकोगे, अतएव हे महाभागों ! तुम अब इनके साथ विहार करो।
इस प्रकार आचार्य का विचार सुनकर वे मुनिगण उनके चरणों में मस्तक रखकर, भारी विरह से हुए शोक के कारण आंसू गिराने लगे । वे महान् शोक के कारण रूधे हुए गले से गद्गद् वचन बोलते हुए, दुःख से संतप्त होकर भी गुरु का वचन टाल न सके । वे गुरु को नमन करके अपने अपराध खमाकर, जैसे तैसे अवम-दुष्काल आदि दोष से रहित देश में आ पहुँचे ।
पीछे संगमसूरि भी शरीर में निरपेक्ष रह कर उक्त क्षेत्र के नव भाग कर पृथक-पृथक वसति, गोचरभूमि और विचारभूमि में यतनापूर्वक रहने लगे।
____ अब सिंह साधु ने किसी समय दत्त नामक साधु को शुद्धि के हेतु गुरु के पास भेजा। वह प्रथम की वसति ही में गुरु को रहते देखकर विचार करने लगा कि-कारणवश पृथक-पृथक क्षेत्र में यद्यपि विहार न किया जा सके तथापि नई-नई वसति बदलना इन्होंने क्यों छोड़ दिया है । इसलिये ये शिथिल-चारित्र जान पड़ते हैं। इससे ऐसे के साथ क्षणभर भी सहवास न रखना चाहिये । यह सोचकर समीप की वसति में वह अलग रहने लगा।