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पात्रमें ज्ञानदान की महत्ता
समभाव से सर्व जीवों की रक्षा करने में उद्यत रहता है वह यति दान देने वाले को पात्र है। इतरथा अर्थात् दूसरी भांति से, आश्रव (पाप) के द्वार को खुले रखने वाले कुपात्र को दिया हुआ दान अनर्थजनक अर्थात् संसार बढ़ाने वाला होता है।
इससे क्या हुआ सो कहते हैं-तब देशनादिरूप श्रु तदान तो प्रधान दान ही है। इससे क्या हुआ सो कहते हैं:
सुटु यरं च न देयं-एयमपत्तमि नायवत्त हिं। इय देसणा विसुद्धा इहरा मिच्छत्तगमणाई ॥९८॥
मूल का अर्थ-अतः इस श्रु तदान को तो खासकर तत्वज्ञानी पुरुषों ने अपात्र में नहीं देना चाहिये । इसी प्रकार विशुद्ध देशना मिनी जाती है, अन्यथा उससे मिथ्यात्व में गमन होता है।
टीका का अर्थ-सुष्ट तर अर्थात् अतिशय से यहां चकार अवधारणार्थ है। जिससे न देना अर्थात् कदापि न देना । यह अर्थात् श्रु तोपदेशादिक रूप दान, अपात्र में याने अपात्र को। क्योंकियहां सातवीं विभक्ति चौथी के अर्थ में है। ज्ञाततत्त्र अर्थात् आगम के वास्तविक भाव को जानने वाले पुरुषों ने । कहा भी है कि:-रक्त, द्विष्ट, मूढ, और पुर्व व्युद्ग्राहित ये चार उपदेश को अयोग्य हैं किन्तु जो मध्यस्थ हों वे ही उपदेश को योग्य हैं । - अपात्र छोड़कर पात्रों में भी उचित रीति से देशना दी जाती है, वह शुद्ध कहलाती है । इतरथा अर्थात् अन्य प्रकार से देशना करने से सुननेवाले मिथ्यात्व में पड़ते हैं । आदिशब्द से द्वेष बढ़कर भात, पानी तथा शय्या मिलना बन्द हो जाता है तथा समय पर उपदेशकों की प्राण हानि भी हो जाती है। इत्यादि