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स्खलित शुद्धि पर
तथा भय आदि त्याग कर भावशल्य निकालने चाहिये। कहा भी है कि-जैसे बालक सरल रहकर कार्य अकार्य कह देता है । वैसे ही माया मद छोड़ कर उसी भांति आलोचना करना चाहिये ।
चौथा द्वार पूर्ण हुआ । अब सम्यक् विशोधि के गुण कहते हैं__ आलोचना लेने से पाप हलके होते हैं। आल्हाद होता है। स्वपर की पाप से निवृत्ति होती है । ऋजुता कायम रहती है । शोधि होती है । दुष्कर करण होता है। कोमल परिणाम होता है। निःशल्यता होती है । ये शोधि के गुण हैं। आलोचना लेने के परिणाम से गुरु के पास आने को रवाना होकर जो मार्ग के बीच में ही मर जाय, तो भी वह आराधक ही है। गुरु के पास आकर जो अपने दोष प्रकट करता है, वह जो मोक्ष को न जावे तो भी देवता तो अवश्य होता है। अब जो ऐसा जानकर भी अपने शल्य बराबर नहीं बतावे तो उसे गुरु ने निशीथ-भाष्य में कहे हुए दृष्टान्तों से प्रेरित करना चाहिये । . ___ जैसे कि-कोई एक राजा के पास सर्व गुणसम्पन्न एक घोड़ा था | उसके प्रभाव से राजा को सर्व सम्पत्ति मिली थी । अब दूसरे राजा अपने-अपने यहां रह कर ऐसा शोधने लगे कि-ऐसा कोई मनुष्य है कि-जो उस घोड़े को हर लावे ? तब गुप्तचरों ने कहा कि-वह तो सदा मनुष्यों के झुण्ड के बीच में रहता है। जिससे हरा नहीं जा सकता । इतने में एक मनुष्य ने कहा कि
ऐसा होने पर भी मारा तो जा सकता है । तब राजा ने कहा कि-चाहे ऐसा ही हो । तब वह मनुष्य वहां आया तथापि उसे घोड़े के पास जाने का लाभ न मिल सका । तब उसने बाण के .सिरे में क्षुद्रिका-कंटक पिरोकर उससे उक्त घोड़े को बींध कर