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शिवभद्र मुनि का दृष्टांत
ఏడు
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१ आचारवान, २ आधारवान् ३ व्यवहारवान्, ४ उद्ब्रीडक ५ प्रकुर्वी, ६ अपरिश्रावी, ७ निर्यापक और ८ अपायदर्शी गुरु होना चाहिये ।
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ज्ञानाचारादिक से जो युक्त हो सो आचारवान् है । शिष्य के कहे हुए अपराध को मन में धारण करके रखे सो आधारवान् है । व्यवहार पांच प्रकार का है: -आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत ये पांच व्यवहार हैं । केवली मनपर्यंत्री, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी और नवपूर्वी ये आगम व्यवहारी कहलाते हैं। उससे कम आचार - प्रकल्पादिक शेषसर्व श्रुत जानो | देशांतरवासी गूढ - पद से आलोचना ले.सो आज्ञा है ।
गीतार्थ से पहिले सुना हो, उसे स्मरण रखकर तदनुसार प्रायश्चित करने से धारणा कहलाती है और जिस गच्छ में जो प्रायश्चित परम्परा से रूढ़िगत हो सो जीत है । लज्जावान् को समझाकर कम लज्जावान् करे सो उद्यीडक कहलाता है, और घोर पाप की भी शुद्धि करा सके सो प्रकुर्वी है । गंभीर हो सो अपरिस्रावी है | दुर्बल को भी चला लेने वाला हो सो निर्यापक है और शल्य वालों को नरकादिक के दुःख बतानेवाला हो सो अपायदर्शी है । शल्य का उद्धार करने के हेतु क्षेत्र से सात सौ योजन पर्यन्त गीतार्थं गुरु की शोध करना और काल से बारह वर्ष पर्यन्त राह देखना |
जो अगीतार्थ होता है सो सर्वलोक का सार चार प्रकार का अंग बिगाड़ता है, और चतुरंग बिगड़ा, तो पुनः चतुरंग मिलना कुछ सुलभ नहीं । तथा जो व्रत ग्रहण से लेकर अखंडित चारित्रवाले और गीतार्थ हों उन्हीं से सम्यक्त्वव्रत तथा प्रायश्चित लेना चाहिये | इसलिये ऐसे गुरु के पास लज्जा, गारव (मान)