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स्खलित परिशुद्धि
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रूप श्रद्धा का तीसरा लक्षण विस्तारपूर्वक कह बताया । अब स्खलित परिशुद्धि रूप चौथा लक्षण कहते हैं:
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अइयारमलकलंकं पमायमाईहि कहवि चरणस्स । जणिपि त्रिपडणाए सोहंति मुखी विमलसद्धा ॥ १०४ ॥
मूल का अर्थ - प्रमाद आदि से चारित्र में किसी प्रकार से अतिचार मलकलंक लगा हो, तो उसे भी विमल श्रद्धावान मुनि विकटना (आलोचना) से शुद्ध कर लेते हैं ।
टीका का अर्थ- अतिचार अर्थात् मूलगुण तथा उत्तरगुण की मर्यादा का अतिक्रम, वहीं डिंडीपेंड (अफीम का गोला) के समान उज्वल गुणगण को मलीन करने वाला होने से मल कहलाता है । तद्रूप चारित्रचन्द्र का कलंक उसे प्रमादादिक से अर्थात् प्रमाद, दर्प और कल्प से प्रायः आकुट्टिका तो चारित्रवान् को संभव नहीं- किसी प्रकार से भी अर्थात् कंटकमय मार्ग में यत्न से जाने वाले को भी कांटा लगे तद्वत् चारित्र में लगा हो ।
आकुट्टिकादिक का स्वरूप यह है
तीव्रता से जानबूझ कर करना सो आकुट्टिका है। दौडादौड़ से करना सो दर्प हैं । विकथा आदि प्रमाद है और कारण से करना कल्प है । ये दशविध प्रतिसेवा के उपलक्षण रूप से है । दशविध प्रतिसेवा यह है :
दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आतुर (रुग्णावस्था), आपत्, शंकित, सहसाकार, भय, प्रद्वेष और विमर्श ( इन दश कारणों से प्रांतसेवा होती है।) अपिशब्द संभावनार्थ होने से, संभवतः चारित्रीय को इस प्रकार अतिचार कलंक लगना संभव है, तथापि उसको विकटना अर्थात् आलोचना द्वारा विमल श्रद्धावाले अर्थात् निष्क
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