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पात्रमें ज्ञानदान की महत्ता
इस प्रकार तीन जगत् को विस्मयकारक और मनोहर महामुनि का चरित्र सुनकर, हे सत्साधुओं ! तुम गुरु से तत्त्व जानकर शुद्धदेशना करने में प्रयत्न करो।
इस प्रकार निग्रंथ साधु की कथा पूर्ण हुई। पूर्व पक्ष-देशना याने धर्मोपदेश भला करने के हेतु समभाषी साधु ने सब को समान रीति से देना चाहिये | उसमें फिर सामायिक (समभाव को बाधा करनेवाले और लगभग छेतपिंडी के समान पात्रापात्र के विचार की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर:-यह बात ऐसी नहीं, क्योंकि-भला करने की प्रवृतिकरते धूर्तता नहीं गिनी जाती । क्योंकि-जिसे संनिपात हुआ हो उसे दूध शकर देना बन्द करके क्वाथ ही दिया जाता है। इसीसे ऐसा करने में समभाव को बाधा भी नहीं। क्योंकि-सबों पर अनग्रह बुद्धि समान ही रहती है अथवा सूत्रकार ही अन्य युक्ति कहता है।
सवपि जओ दाणं दिन पत्तमि दायगाण हियं ।। इहरा अणत्थजणगं- पहाणदाणं च सुयदाणं ॥९७॥
मूल का अर्थ-कोई भी दान पात्र को देने से ही उसके दाताओं को हितकारी होता है अन्यथा अनर्थकारी हो जाता है। तब श्रुतदान तो सब से उत्तम दान है। ___टीका का अर्थ-क्योंकि सर्व दान पात्र को याने उचित ग्राहक को दिया हो, तभी दायक अर्थात् दाता को हित याने कल्याणकारी होता है । उचित पात्र का वर्णन श्रीमान् उमास्वाति वाचक ने इस प्रकार किया है-जो जीवादिक पदार्थों का जानकार होकर