________________
ज्ञानादिक में अतृप्ति पर
बांधने के कारणभूत नये-नये ज्ञान का संपादन विधिपूर्वक सदैव करते रहना चाहिये | तथा चारित्र के विषय में विशुद्ध विशुद्धतर संयम स्थान पाने के लिये सद्भावनापूर्वक संपूर्ण अनुष्ठान उपयोग सहित ही करे । कारण कि अप्रमाद से किये हुए साधु के सकल व्यापार उत्तरोत्तर संयम-कंडक पर चढ़ा कर केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं ।
३०
आगम में भी कहा है कि जिन शासन में दुःखक्षय करने में आनेवाले प्रत्येक योग में प्रवृत अनेकों केवली हुए हैं व वैयावृत्य व तप तो प्रसिद्ध ही हैं, तथा आदि शब्द से प्रत्युपेक्षण, प्रमार्जन आदि लेना चाहिये। उन सब में यथा वीर्य अर्थात् सामर्थ्यानुसार भाव से याने सद्भाव पूर्वक प्रयत्न करे, अचल मुनिश्वर के समान |
अचलमुनि का चरित्र इस प्रकार है:
भय रहित निर्भयपुर नगर में पवित्र जनों को अति हर्ष देने वाला रामचन्द्र नामक राजा था । जो कि सलखन (लक्ष्मण सहित) रामचन्द्र के समान सलक्षण (लक्षणयुक्त ) था । उसका अत्यन्त गौरवशाली अचल नामक सामंत था । वह न्याय, सत्य, शौच, शौर्य आदि गुण-रत्नों का रत्नाकर था ।
अब एक समय वह बहुत से परिवार सहित सभा में बैठा था । इतने में अति दुःखसूचक वाणि से नगरजन उसे कहने लगे कि- हे देव ! चोर नहीं दीखता, सेंध लगी नहीं दीखती, और पदचिह्न भी नहीं दीखते, तथापि कोई अदृष्ट रूप से इस नगर को लूट रहा है । यह सुन क्रु द्ध हो राजा ने कहा कि अहो सुभटों ! क्या तुम में से कोई उस चोर को पकड़ने में समर्थ हैं ?