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अचलमुनि का दृष्टांत
तथा तप से निकाचित कमों का भी क्षय होता जानकर महान् तप करने लगा, तथा क्षणलव ध्यान में उपयुक्त रहकर मुनियों को भक्त पानादिक वैयावृत्य करने लगा । कारण कि - पतित होने से अथवा मरने से चारित्र नष्ट होता है और स्मरण न करने से श्रुत नष्ट होता है, किन्तु वैयावृत्य जनित शुभोदयी कर्मनाश होता ही नहीं । ऐसा चितवन करके वह भारी उमंग से वैयावृत्य करने लगा. तथा प्रवचन की प्रभावना करने में तत्पर रह कर संघ को समाधि करने लगा ।
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इस प्रकार अनुत्तर दशन, ज्ञान और चारित्र में अतृप्त रहने वाले, उग्र तप करने वाले सुप्रशस्त लेश्यारूढ़ हो शुद्ध होने वाले और इस भांति से तीर्थंकर नाम-कर्म बांधने वाले, उक्त अचल मुनि को सर्वोषध आदि अनेक लब्धियां उत्पन्न हुई ।
इतने में निर्भयपुर में रामचन्द्र राजा के हाथियों में एक ऐसा रोग फैला कि-चतुर वैद्यों के अनेक भैरज औषध के प्रयोग बताने पर भी और मंत्र-तन्त्र वादियों की कही हुई क्रियाएँ कराने पर भी उस रोग से हाथी मरने लगे । तत्र राजा चिन्तातुर होने लगा ।
अब उस समय गुरु की अनुज्ञा से अचल मुनि वहां आये । तब राजा उनके पास आ, उनको प्रणाम करके उचित स्थान पर बैठा । मुनि ने भी राजा को योग्य सम्यक्त्व रूप मजबूत मूलवाला, पांच अणुव्रत रूप स्कंध वाला, तीन गुणव्रतरूप शाखा वाला, शिक्षात्रत रूप प्रतिशाखा वाला, निर्मल अनेक नियम रूप कुसुम वाला और सुर-नर की समृद्धि रूप फलवाला, गृहिधर्मरूप कल्पतरु कह सुनाया ।
जिसे सुन राजा बोला कि - हे प्रभु! यह धर्म करना चाहता हूँ, किन्तु असमय मेरे हाथियों को मरते देख कर हे मुनीश्वर !