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निम्रन्थ मुनि का दृष्टांत
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को दबाता हुआ तथा हाथी पर चढ़कर श्वेत चामरों से विजायमान होता हुआ, मस्तक पर छत्र धरवा कर चलने लगा। और उसके आगे चलते हुए भाद-चारण उसकी अत्यन्त सरस कीर्ति गाने लगे। इस प्रकार विहार यात्रा करके वह मंडितकुक्षि नामक चैत्य में (वन में) आ पहुँचा ।
वहां रतिरहित कामदेव के समान रूपवान एक तरुण मुनि को झाड़ के नीचे बैठे हुए देखकर इस प्रकार विचार करने लगा। ___ इस आर्यपुरुष का रंग देखो, रूप देखो, मुक्ति (त्याग) देखो, उत्तम क्षांति (क्षमा) देखो, तथा भोगों में असंगिता देखो। यह कह वह उनके चरणों में प्रणाम करके हाथों को जोड़कर उचित दूरी पर खड़ा रहकर कहने लगा कि-हे आर्य ! आपने यौवनावस्था में यह श्रमणत्व क्यों उठाया है ? _ तब उक्त महर्षि उसके अनुग्रह के लिये हेतुयुक्त, शुद्धभाष को बढ़ाने वाली और पात्रानुरूप वाणी बोले कि-हे मगधेश्वर ! मैं अनाथ हूँ अर्थात् हे नरेन्द्र ! मेरा नाथ कोई नहीं। मुझे यहां मुझ पर अनुकम्पा करने वाले व सुहृत् सम्बन्धी नहीं जान पड़ते । इसी से मैने लाखों दुःखों को क्षय करने वाली यह दीक्षा ग्रहण की है। (यह सुनकर) राजा हास्य से दांतों की कान्ति बताता हुआ बोला
हे मुनीश्वर ! आप आपके लक्षण, व्यंजन और गुणों परसे तो अत्यन्त वैभवशाली होगे, ऐसा दीखता है । तो फिर आपका नाथ वा अनुकम्पक व मुहृत् क्यों न होगा ? और कदाचित् ऐसा ही हो तो, लीजिए बहुत से स्वजन परिवार वाला मैं ही आपका नाथ होता हूं । आप विषय-सुख भोगो, पुनः मनुष्य-भव मिलना दुर्लभ है।