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ज्ञानादिक में अतृप्ति पर
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लोक के तुच्छ प्रयोजन के हेतु इस प्रकार जीव लाखों अकृत्य करना चाहता है, किन्तु उससे होने वाले दुःख को नहीं देख सकता । ये जीव अत्यन्त गाढ़ लोभ रूप मुद्गल के प्रहार से खूब विधुरित होकर देखो ! किस प्रकार दुर्गति के गड्डे में गिरते हैं ?
इसलिये सारे लोभ के संक्षोभरूप तीक्ष्ण बाणावली को रोकने में समर्थ कवच समान दीक्षा को मैं दृढ़ हिम्मत रखकर लूंगा । इस प्रकार अचल, अचल संवेग से चित्त में सोचने लगा, इतने में गुणसुन्दर नामक आचार्य का आगमन हुआ ।
अब अचल वहां गुरु का आगमन हुआ सुनकर उनके पास आया और उनके पदपद्म को नमन करके उचित स्थान में बैठा । तब आचार्य ने कानों को सुखदायी वचनों से ससार से निर्वेद कराने वाली, लोभ व मोह को दूर करने वाली विषयानुराग रूप वृक्ष को उखाड़ने में हाथिनी समान, संवेग उत्पन्न करने वाली, और संसार स्थित सम्पूर्ण वस्तुओं को बताने वाली देशना दी । जिसे सुनकर अचल ने प्रतिबोध पाकर ज्यों त्यों राजा की आज्ञा ले उक्त गुरु से संवेग धारण कर दीक्षा ग्रहण की।
वह दो प्रकार की शिक्षा अंगीकृत करके गुरु के साथ पृथ्वी पर विचरने लगा, और भाव- शत्रु को मारने वाले तथा पुन जन्म न पाने वाले अर्हत् का यथारीति आराधना करने लगा | प्रवचन की वात्सल्यता में तत्पर हो, वह सुखसमृद्ध सिद्धों का सदैव ध्यान करने लगा तथा श्रद्धा और विनयपूर्वक शिवफल के तरु समान गुरुओं की सेवा करने लगा । तथा निरन्तर ज्ञान के उपयोग में रहकर श्रुतपर्याय से महान स्थविरों, बहुश्रुतों तथा तपस्वियों की यथोचित आराधना करने लगा ।
शीलव्रत तथा आवश्यक में अतिचार को दूर करने लगा, तथा श्रुत को भक्ति में परायण होकर अपूर्व ज्ञान सीखने लगा ।