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ज्ञानादिक में अतृप्ति पर
अब ज्यों-ज्यों अचल उसे मांस के टुकड़े काट कर देने लगा त्यों-त्यों कोई दिव्य औषध पी हो वैसे उसकी भूख बढ़ने लगी । तब अचल अपने कलेवर को तमाम मांस राहत हुआ देख जीवन से निरपेक्ष हो अपना सिर काट कर भी देने को तैयार हुआ । तब पिशाच ने उसके सत्र से संतुष्ट होकर अपने दाहिने हाथ से पकड़ कर कहा कि ऐसा साहस मत, और जो चाहिये सो मांग |
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अचल बोला कि जो तू मुझ पर प्रसन्न हुआ हो तो साधक का इष्ट कर । तब देव बोला कि वह तो मैंने किया ही मान, किन्तु दूसरा भी कुछ मांग | अचल बोला कि - हे देव तुझे क्या मेरे काम की खबर नहीं क-जो कहना पड़े ? तब देव अवधि के बल से उक्त काम जानकर बोला कि, हे अचल ! तू अपने घर जा और विषाद त्याग कर धीरज रख, प्रातःकाल चोर की सब पोल प्रकट हो जावेगी । प्रातःकाल अचल सोकर उठा तब पिशाच ने कहा कि - हे भद्र ! अब चोर की बात सुन । उसने उत्तर दिया बहुत अच्छा प्रकट करो ।
पिशाच बोला कि इस नगर के बाहिर पूर्व दिशा के आश्रम में पर्वतक नामक एक योगी रहता है। वह सिद्ध है और उसका कपिलाक्ष नामक एक शिष्य है । उसके द्वारा वह रात्रि को नगर में से उत्तम उत्तम वस्तुएँ हरण कराता है और इच्छानुसार क्रीड़ा करता है । पश्चात् दिन में योगी का रूप धरकर धर्म-कथा करता है । उसके अश्रम के तलघर में चोरो का तमाम द्रव्य रखा है । इसमें संशय मत कर। यह कह कर देवता अंतर्ध्यान हो गया ।
अब प्रातः कृत्य करके अचल कुछ मनुष्य साथ लेकर देवता के कड़े हुए आश्रम में आया तो वहां उसने कपट- योगी को देखा ।