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श्रद्धाका अतृप्ति स्वरूप दूसरा लक्षण
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इस प्रकार विशुद्ध विधि सेवन में तत्पर श्री संगमसूरि का चरित्र सुनकर द्रव्यादि-दोष से आहत होते हुए भी हे साधु जनों ! तुम पवित्र चारित्र में उत्तम श्रद्धा रखो ।
इस प्रकार संगमसूरि की कथा पूर्ण हुई ।
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इस भांति विधिसेवा रूप श्रद्धा का पहिला लक्षण कहा | अब अतृप्तिरूप दूसरा लक्षण कहने की इच्छा से कहते हैं:
तत्तिं न चैव विंदइ सद्भाजोगेण नाणवरणेसु । वेयावच्चतवासु जहविरियं भावओ जय || १४ ||
मूल का अर्थ - ज्ञान और चरण में श्रद्धा के योग से कदापि तृप्ति न पावे और वैयावृत्य तथा तप आदि में अपने वीर्य के अनुसार यत्न करे ।
टीका का अर्थ - तृप्ति याने इतने से मैं कृतकृत्य हूँ, ऐसा संतोष श्रद्धा के कारण ज्ञान और चारित्र में कभी न पावे । वहां जितने से संयमानुष्ठान चले उतना मैंने पढ़ लिया है, अतः बस है । यह सोच कर ज्ञान में प्रमादी न होवे, किन्तु नई-नई श्रुतसंपदा उपार्जन करने में विशेष उत्साही रहे । कहा भी है कि:
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ज्यों ज्यों अतिशय रस प्रसरने के साथ अपूर्व श्रत पढ़े त्यों त्यों मुनि नये-नये संवेग और श्रद्धा से प्रसन्न हुआ करे । तथा जिसका अर्थ मोहक्षय होने के बाद जिनेश्वर भगवान् ने कहा है और जो सूत्र से गौतमादिक महा बुद्धिवन्तों ने गूंथा है । उस संवेगादिक गुणों की वृद्धि उपजाने वाले और तीर्थंकर नाम-कर्म