________________
श्री संगमसूरि की कथा
।
२७
___बाद भिक्षा के समय वह गुरु के साथ फिरता था, किन्तु दुर्भिक्ष के योग से अच्छा आहार न मिलने से उसका मुह फीका होकर काला पड़ने लगा। उसे वैसा हुआ देख कर आचार्य किसी धनिक के घर गये। वहां उसका एक लड़का रेवती के दोष से सदैव रोता था। उसे गुरु ने चुटकी बजाकर कहा कि-हे बालक ! मत रो । तब रेवती गुरु का तेज न सहकर तुरत भागी। जिससे वह बालक स्वस्थ हो गया। इससे उसका बाप लड्डू ले आया, वे करुणानिधि गुरु ने दत्त को दिलवाये । ___ अब गुरु ने कहा कि-हे दत्त ! अब तू उपाश्रय को जा और मैं गोचरी . पूरी करके आता हूँ। तब दत्त ने विचार किया किदीर्घकाल में इन्होंने मुझे केवल एक श्रद्धावान् श्रावक का घर बताया है और स्वयं अब दूसरों के यहां जाने वाले मालूम होते हैं। इस प्रकार सोचता हुआ वह उपाश्रय को आया। पश्चात् गुरु अंतप्रांत आहार लेकर बहुत देर से वहां आये। उन्होंने शास्त्र को विधि से जिस प्रकार सर्प बिल में घुसता है, उस प्रकार उसे खाया। ____ अब आवश्यक समय गुरु आलोचना लेकर बैठे तो वह भी बैठने लगा । तब गुरु ने कहा कि-यथोचित आलोयणा कर । तब वह बोला कि आपके साथ ही फिरा हूँ अतः क्या बताऊँ ? गुरु बोले कि-बालक के कारण मिला हुआ वह सूक्ष्म धात्रीपिंड है, उसकी आलोचना कर। तव दुरात्मा दत्त अनेक संकल्प और कल्पनाएँ करके नीम के समान कटुवाणी से गुरु के प्रति कहने लगा कि-तुम दूसरे के तो राई व सरसों बराबर दोष देखते हो किन्तु अपने बिल्वकल समान दोष देखते हुए भी नहीं देख सको हो । यह कहकर वह अपने स्थान को गया । पश्चात् उसे शिक्षा देने के लिये नगर की अधिष्ठायक देवी ने उस दिन घनघोर