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प्रवर श्रद्धा पर
उत्साह वाला पुरुष द्रव्य से अर्थात् बाह्यवृत्ति से विरुद्ध अर्थात् आगम निषिद्ध नित्यवासादिक तथा अपिशब्द से एकादिपन का सेवन करता हुआ, भी श्रद्धा के गुण से अर्थात् संयम आराधना करने में लालसापन के परिणाम से भावचरण को अर्थात् पारमार्थिक चारित्र का अतिक्रम नहीं करता है। श्री संगमसूरि के समान ।
क्योंकि कहा है कि-शोभन-भाववाले को प्रायः द्रव्यादिक विघ्नकारी नहीं होते, वैसे ही बाह्यक्रिया भी समझना चाहिये । लोक में भी ऐसी कहावत है कि___ स्वामी की आज्ञा से चलते हुए सुभट को बाण लगे तो भी वह स्त्री के मारे हुए कर्णोत्पल के समान उसे आनन्दित करता है । धीर पुरुषों के मनवांछित काम प्रारम्भ करते जैसे स्वदेश में वसे परदेश में भी उनकी हिम्मत नहीं हारती। तथा दुर्भिक्षादिक काल भी दानवीर-जनों के आशयरूप रत्न का भेदन नहीं कर सकता, किन्तु अधिक विशुद्ध करता है।
इसी प्रकार महानुभाव भव्य चारित्रवन्त पुरुष को शुभ सामाचारी की ओर रहा हुआ भाव कदापि नहीं बदलता ।
तथा जो रोगग्रसित अथवा वृद्धावस्था के कारण असमर्थ हो जाय और उससे जसा कहा हुआ है, वसा सब न कर सके तो भी वह जो अपने पराक्रम, उद्योग, धोरज और बल को न छिपाते और ढोंग न करते यत्नवान रहे तो उसे अवश्य यति मानना चाहिये।
श्री संगमसूरि की कथा इस प्रकार हैयहां श्री संगतसूरि थे। वे समस्त भारी प्रमाद को दूर करने वाते थे। अज्ञान रूप काष्ट को जलाने में दावानल समान शास्त्र