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संविग्न गीतार्थ की आचरणा
यह अप्रमाण इसलिये है कि-वह सिद्धान्त में निषिद्ध है, संयम विरुद्ध है और निष्कारण चला हुआ है। इस प्रकार यथो. चित विचार कर लेना चाहिये ।
इस प्रकार आनुषगिक कह कर अब प्रस्तुत का उपसंहार करतेहैं
गीयस्थपारतंता इय दुविहं मग्गमण परंतस्स । भावजइत्तं जुत्तं दुपसहंत जो च ण ॥८९॥ मूल का अर्थ-गीतार्थ की परतन्त्राता में रहकर, इस भांति दो जाति के मागे का अनुसरण करने वाले को भावयतित्व युक्त है । क्योंकि दुःप्रसह पर्यंत चारित्र (कहा हुआ है) ___टीका का अर्थ-गीतार्थ की परतन्त्रता से अर्थात् आगम के ज्ञाता पुरुष की आज्ञा में रहकर. इस प्रकार अर्थात् कहा हुई नीति से दो जाति के मार्ग को अर्थात् आगम नीति और आगमानुसारी वृद्ध समाचार इन दो भेद वाले मार्ग को अनुसरण करने वाले याने उसके अनुसार चलने वाले साधु को भावयतित्व याने सुसाधुपन युक्त है। याने कहा जा सकता है। क्योंकि-दुःप्रसह नामक आचार्य पर्यंत चारित्र होगा, ऐसा सिद्धान्त में सुना जाता है।
___तात्पर्य यह है कि-जो मार्गानुसारी क्रिया करने में यत्न करने वालों को चारित्रवान न माने तो उनके बिना दूसरे तो कोई दीखते नहीं, अर्थात् चारित्र ही विच्छिन्न हुआ, और उससे तीर्थ भी विच्छिन्न हुआ, यह बात आई । अब यह बात तो भूत, वर्तमान व भविष्यत् के भाव को प्रत्यक्ष जानने वाले जिनेश्वर के