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दूसरा लिंग प्रवर श्रद्धा
सिद्धान्त के साथ विरुद्ध पड़ती है, अतएव उसे चतुरजन स्वीकार नहीं करते । क्योंकि-व्यवहार-भाग्य में भी कहा है कि
किसी-किसी का ऐसा आदेश (मत) है कि-ज्ञान, दर्शन से तीर्थ वर्तमान है, और चारित्र विच्छिन्न हुआ है, किन्तु ऐसा बोलने वाले को चतुर्गुरु प्रायश्चित देना चाहिये। ___ जो ऐसा कहते हैं कि-धर्म नहीं, सामायिक नहीं, और व्रत नहीं उनको श्रमण-संघ ने अपने श्रमग-संघ से बाहिर निकाल देना चाहिये । इत्यादि आगम के प्रमाग से मार्गानुसारी क्रिया करने वाले भावयति हैं, यह बात निश्चित हुई। इस प्रकार सर्व मार्गानुसारी क्रिया हो, यह भाव-साधु का प्रथम लिग कहा । अब धर्म में प्रवर श्रद्धारूप दूसप लिंग कहते है
सद्धा तिन्वभिलासो धम्मे परतणं इमं तीसे । विहिसेव अतित्ती सुद्धदेसणा खलियपरिसद्धी ॥९॥ मूल का अर्थ-श्रद्धा याने तोत्राभिलाम, उसका धर्म में प्रवरत्व, वह यह है:-विधिसेवा अतृप्ति, शुद्धदेशना और स्खलित की परिशुद्धि । ___टीका का अर्थ-धर्म में प्रचरश्रद्धा, यह दूसरा लिंग कहा हुआ है । वहां श्रद्धा याने तीव्र अभिलाषा अर्थात् कि-कर्म की क्षयोपशम और सम्यक् ज्ञान से हुई इच्छा, न कि-बालक को रत्न लेने की इच्छा होती है, उसके समान केवल कोई भी विषय का प्रतिभास रूप ज्ञान । इसलिये विशेषण कहाकि-तीव्र अभिलाषा धर्म में अर्थात् श्रुत और चारित्र रूप धर्म में उसका प्रवरत्व, वह यह याने जो आगे कहा जावेगा, उसे श्रद्धा का फलरूप जानो।