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दुर्बलिका पुष्यमित्र की कथा
इतने में मुनिगण वहा आ पहुंचे । वे बोले कि-द्वार कहाँ है ? तब गुरु बोले कि, इस ओर से आओ। पश्चात् इन्द्र के आगमन की बात कही। वे बोले कि-थोड़ी देर उसे रोका क्यों नहीं? तब गुरु ने वसति का द्वार फेरने तक का सकल वृत्तान्त कह सुनाया। ___एक समय वे भगवान विचरते-विचरते दशपुर नगर में गये । इतने में इधर मथुरा में एक प्रबल नास्तिकवादी उठा । तब सद्गुण के संघ समान संघ ने उक्त आर्यरक्षित युगप्रधानागम के पास साधु का संघाटक भेजा। तब उन्होंने गोष्ठामाहिल नामक अपने मामा को वहां भेजे। वे महान् वादलब्धियुक्त थे । अतः उन्होंने शीघ्र ही उक्त वादी को जीत लिया । जिससे वहां के श्रावकों ने हर्षित होकर उनको वहां चातुर्मास करने को रोके । इधर रक्षितसूरि ने अपना आयुष्य बहुत थोड़ा जानकर निपुणबुद्धि से विचार किया कि-गणधर (गच्छनायक) किसे करना चाहिये ? तब दुर्बलिका-पुष्यमित्र उनको आचार्य-पद के योग्य जान पड़े। किन्तु उनके जो स्वजन सम्बन्धी थे, उनको फल्गुरक्षित मुनि अथवा उनका मामा विशेष अभिमत था, जिससे उन्होंको गुरु ने कहा कि__ यहां वाल तैल और घो के घड़े औंधे करें तो वाल सब दुल जावें तेल थोड़ा सा चिपका रहे और घी अधिक रहे। इस प्रकार दुर्बलिका-पुष्यमित्र के प्रति मैं सूत्रार्थ ढोलने में वाल के घड़े के समान हूँ। फल्गुरक्षित के प्रति तेल के घड़े के समान हूं और गोष्ठा-माहिल के प्रति घी के घड़े के समान हूँ । इस कारण से हे भद्रों ! सूत्र अर्थ और तदुभय को धारण करने वाला श्रद्धा संवेग सहित, सुमतिवान, सक्रिया करने में रक्त, राजकरउक समान गुणवाला, और स्वसमय-परसमय का ज्ञाता यह दुब