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संविग्न गीतार्थ की आचरणा पर
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मूल का अर्थ कार्य का अवलंबन करके गीतार्थ जो कुछ थोड़े अपराध और बहु गुणवाला काम करते हैं, वह सबको प्रमाण रहता है ।
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टीका का अर्थ-संयमोपकारी काम के आश्रय से आगम के ज्ञाता पुरुष जो कुछ समाचरते हैं, अर्थात् सिद्धान्त के अनुसार संगतपन से सेवन करते हैं। वह कैसा कि स्तोकापराध अर्थात् जिसके करने से अल्प दोष लगता है ऐसा, क्योंकि - निष्कारण सेवन करने से प्रायश्चित लगता ही है, तथा बहु गुण याने गुरु, ग्लान, बाल, वृद्ध, क्षपणक आदि को सहारा देने वाला होने से अधिक लाभप्रद हो, जैसे कि मात्रक का परिभोग, वह सब चारित्रवन्तों को प्रमाण ही रहता है । आर्यरक्षितसूरि ने जो आचरण किया, सो दुर्बलिका पुष्यमित्र ने स्वीकृत किया । आर्यरक्षितसूरि और दुर्बलिका पुष्यमित्र की कथा इस प्रकार है
यहां दशपुर नगर में सोमदेव ब्राह्मण के वंश में सूर्य समान और गंभीर बुद्धिमती रुद्रसोमा की कुक्षि रूप सरोवर में राजहंस समान पाटलीपुत्र से चौदह विद्या पढ़कर आये हुए, और उससे संतुष्ट हुए राजा द्वारा बड़ी धूमधाम से नगर में प्रवेश कराये हुए, नगरजन को आनन्दित करने वाले, माता के वाक्य से दृष्टिवाद सूत्र को पढ़ने के लिये श्री तोसलीपुत्र सूरि से दीक्षा ग्रहण करने वाले, श्री वैरस्वामी से साढ़े नव पूर्व सीखने वाले, अपने लघु बांधव फल्गु-रक्षित व माता आदि लोगों को दीक्षा दिलाने वाले तथा अनेक उपाय करके पिता को चारित्र ग्रहण कराने वाले और उन्होंने जिनको कमर में डोरा बांधा, ऐसे श्री आर्यरक्षित नामक युगप्रधान आचार्य थे ।
उनके विनय- विनीत और विशिष्ट लब्धिवान् तीन शिष्य थे,