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संविग्न गीतार्थ की आचरण
सत्थपरिना छक्काय सजमो पिंड उत्तरज्झाए। रुक्खे वसहे गोघे जोहे सोही य पुक्खरिणी ॥१॥ . इस गाथा का संक्षेप में अर्थ यह है कि:-शस्त्र परिज्ञा अध्ययन, सूत्र और अर्थ से जाने बाद भिक्षु को बड़ी दीक्षा देना । ऐसी महाप्रभावी जिन-प्रवचन की मर्यादा थो । उसके बदले जीत ऐसो चलता है कि, षटकाय का सयम अयोत् दशकालिक का षट्जीवनिका नामक चौथा अध्ययन जान लेने पर भिक्षु को बड़ी दीक्षा देना । व पिडेषणा अध्ययन सीखने के बाद उत्तराध्ययन सीखा जाता था। उसके बदले अभी उत्तराध्ययन सीख कर पिंडेषणा सीखा जाता है।
पूर्व में कल्पवृक्ष लोक के शरीर की स्थिति करते थे। इस समय आम और शरीर से भी काम चलता है । पूर्व में बैल बहुत बलवान और श्वेत थे। इस समय लोग धूसर बैलों से भो काम चला लेते हैं। तथा गोर याने कृषक पूर्व में चक्रवर्ती के गृहपति रत्न के समान उसी दिन धान्य उत्पादन कर सकते थे। इस समय वैसे न होने पर भी साधारण कृषकों से भी लोग निर्वाह कर लेते हैं।
तथा पूर्व में सहस्रयोद्धी ( एक ही समय सहस्र मनुष्यों से लड़ने वाले ) योध्दा थे, तो इस समय थोड़े बल पराक्रम वाले योद्धाओं से भी राजा शत्रु को जीत कर राज्य पालन करते हैं।
इसी प्रकार साधु भी जीत-व्यवहार से भो संयम का आराधना कर सकते हैं । यह उपरोक्त दृष्टान्तों का उपनय है। तथा शोधि याने प्रायश्चित पूर्व में छः मासी का आता था। उसके स्थान में जीत-ज्यवहार में बारस (पांच उपवास) का कहा है।