Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 14
________________ संविग्न गीतार्थ की आचरण लगा कर पात्र बांधना सो, उससे भिक्षा । आगम में पात्र बंध के दो किनारे मुट्ठी में पकड़ने के तथा दो कोहनी के पास बांधने के कहे हैं, तथा औपग्रहिक उपकरण रखना जैसे कि-कटाहक, तुम्बे का ढक्कन तथा डोरे आदि ये सब प्रसिद्ध ही हैं। ये सब अभी साधुओं के आचरित हैं। सिक्किगनिक्खिवणाई पज्जोसवणाइ तिहिपरावत्तो । भोयणविहिअन्नत्त एमाइ विविहम पि ॥८३॥ . ... मूल का अर्थ-सीके में पात्र निक्षेप करना आदि, पयूषणादिक तिथियों का फेरफार, भोजन विधि का फेरफार आदि बहुत सी बातें (आचरित हैं)। टीका का अर्थ--सीका याने डोरे का बनाया हुआ भाजन का आधार । उसमें निक्षेपण करना, अर्थात् पात्र बांधकर रखना, आदि शब्द से युक्तिलेप से ( आजकल के बने हुए लेप से) पात्र रंगना आदि तथा पर्युषणादि तिथि परावर्त-वहां पर्युषणा याने संवत्सरी पर्व और आदि शब्द से चातुर्मासिक लेना । इन दो का तिथि परावर्ग अर्थात् तिथि फेर, जो कि प्रसिद्ध ही है । तथा भोजन विधि का अन्यत्व (फेरफार), जो कि यतिजन में प्रसिद्ध ही है वह इत्यादि याने कि-षडजीवनो अध्ययन सीख जाने पर भी शिष्य को बड़ी दीक्षा देना आदि गीतार्थों ने स्वीकृत को हुई अन्य विविध आचरणाएं प्रमाणभूत ही हैं, ऐसा समझना । क्योंकि व्यवहार-भाष्य में कहा है कि-शस्त्र परिज्ञा के बदले छकाय सजम, पिंडेषणा के बदले उत्तराध्ययन, तथा वृक्ष-वृषभ गोप-योध-शोधि और पुष्करिणी के दृष्टांत दिये हैं। . .

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