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संविग्न गीतार्थ की आचरण
विषय-विभाग इस प्रकार है कि-इस सूत्र में यह कहना है कि-संविग्न गीतार्थ आगम से निरपेक्ष आचरण नहीं करते किन्तु "जिसके द्वारा दोष रुके व पूर्व के कर्मक्षय हों, वही मोक्ष का उपाय है । जैसा कि-शमन (औषध) रोग की अवस्था के अनुसार भिन्न-भिन्न उपाय हैं।" इत्यादि आगम-वचन याद करके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा पुरुषादिक की योग्यता विचार करके संयम की वृद्धि करने बाला ही जो हो, सो आचरते हैं और उसे अन्य संविग्न गीतार्थ भी प्रमाण करते हैं, वह मार्ग कहलाता है। ___तुम्हारे कहे हुए शास्त्र के प्रमाण तो असंविग्न और अगीतार्थ लोग जो कुछ असमंजस आचरते हैं, उसके आश्रित कहे हैं। अतएव उनके साथ कैसा विरोध संभव है ? और इस प्रकार आगम अप्रमाण नहीं होता, परन्तु उलटी उसकी मजबूत स्थापना होती है। इसीसे आगम में भी आगम, श्रत, आज्ञा, धारणा
और जीत के भेद से पांच प्रकार के व्यवहार प्ररूपित किये गये हैं।
___ यथा-श्री स्थानाङ्गसूत्र में कहा है किः
व्यवहार पांच हैं:-आगम व्यवहार, श्रुत-व्यवहार, आज्ञाव्यवहार, धारणा-व्यवहार और जीत-व्यवहार । जीत और आचरित ये एक ही हैं इसलिए आचरित को प्रमाण करते आगम प्रमाण ही हुआ, इसलिये आगम से अविरुद्ध आचरित हो सो प्रमाण है, यह निश्चय हुआ, इसीसे कहते हैं कि:
अनह भणियंपि सुए किंवि कालाइकारणाविक्खं । आइनममहच्चिय दीसइ संविग्ग-गीएहिं ॥८१॥