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प्रथमलिङ्ग मार्गानुसारिणी क्रिया
___टीका का अर्थ-इच्छित स्थान को जाने के लिये जिसे माँगेखोजें सो मार्ग, वह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। उसमें द्रव्यमार्ग सो ग्रामादिक का और भावमार्ग सो मुक्तिपुर का मार्ग। वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप अथवा क्षायोपशमिक भावरूप है । वही भावमागे यहाँ लेना है। यह मार्ग सो कारण में कार्य का उपचार करते हुए आगम-नीति याने सिद्धान्त में कहा हुआ आचार जानो, अथवा बहुत से संविग्न पुरुषों द्वारा मिलकर किया हुआ आचार, ऐसे दो प्रकार का मार्ग है। - वहां आगम याने वीतराग का वचन, क्योंकि कहा है कि आगम सो आप्त-वचन है। जिसके दोष क्षय हो गये हों, वह आप्त है, क्योंकि जो वीतराग होता है, वह झूठ नहीं बोलता, क्योंकि उसे झूठ बोलने का कोई कारण नहीं रहता । उसकी नीति याने उत्सर्गापवाद रूप शुद्ध संयम पालने का उपाय सो मार्ग । क्योंकि कहा है कि-जगत में अन्तरात्मा को वचन ही प्रवर्तक और निवर्तक है, और धर्म भी इसके आधार पर है, इसलिये हमको वह मुनीन्द्र प्रवचन ही प्रमाण है। ...जो यह प्रवचन हृदय में हो तो परमार्थ से मुनीन्द्र ही हृदयस्थ माने जाते हैं और वे हृदयस्थ होव तो नियम से सकल अर्थ की सिद्धि होती है । तथा संविग्न याने मोक्ष के अभिलाषी जो बहुत , से जन अर्थात् गीतार्थ-पुरुष, क्योंकि-दूसरों को संवेग नहीं होता. उन्होंने जो क्रिया की वह भी मार्ग है। ऐसा कहने से यहां असंविग्न बहुत होते हुए भी उनकी अप्रमाणता बताई । क्योंकि सूत्र के भाष्य में कहा है कि
जं जीयमसाहिकरं पासत्थपमत्त संजयाईहिं । बहुएहिवि आयरियं न पमाणं सुद्धचरणाणं (ति)।