Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03 Author(s): Shantisuri, Labhsagar Publisher: Agamoddharak Granthmala View full book textPage 9
________________ भावसाधु के लिङ्ग किरियाप्सु अप्पमा यो आरंभो सकणिज्जट्टाणे । गुरुओ गुणाणुगो गुरु आणाराहणं परमं ॥७९॥ मूल का अर्थ--इसके लिंग ये हैं:--सर्व क्रिया मार्गानुसारिणी, धर्म में उत्कृष्ट श्रद्धा, सरल भाव होने से प्रज्ञापनीयत्व, क्रिया में अप्रमाद, शक्यानुष्ठान ही का प्रारंभ. विशेष गुणानुराग और गुरु की आज्ञा का पूर्णतया आराधन, ये सात लिंग हैं। ये दो द्वार गाथाएं हैं : टीका का अर्थ-ये भावसाधु के लिंग-चिह्न ये हैं:-सकलसमस्त मार्गानुसारिणी याने मोक्षमार्ग को अनुसरण करनेवाली प्रत्युपेक्षणादिक क्रिया, तथा धर्म याने संयम में प्रवर श्रद्धा याने करने की इच्छा, तथा ऋजुभाव से अर्थात् अकुटिलता से प्रज्ञापनीयत्व, अर्थात् असद् अभिनिवेश का त्याग, तथा क्रिया अर्थात् विहित किये हुए अनुष्ठान में अप्रमाद याने अशिथिलता, तथा शक्य याने शक्ति के अनुसार तपश्चरणादिक अनुष्ठान में आरम्भ याने प्रवृति, तथा महान् गुणानुराग याने गुणपक्षपात, तथा गुर्वाज्ञाराधन याने धर्माचार्य के आदेशानुसार वर्ताव, इन सर्व गुणों में प्रधान, इस प्रकार भावसाधु के सात लक्षण है । यह द्वारगाथाओं का संक्ष पार्थ है । विस्तार पूर्वक अर्थ तो सूत्रकार स्वयं ही कहते हैं मग्गो आगमनीई-अहवा संविग्गबहुजणाइन्न। . उभयाणुसारिणी जा सा मग्गणुसारिणी किरिया ॥८॥ मूल का अर्थ-मार्ग सो आगम नीति अथवा संविग्न बहुत जनों का आचरण किया हुआ सो, इन दोनों के अनुसार जो क्रिया वह मार्गानुसारिणी है।Page Navigation
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