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संविग्न गीतार्थ की आचरणा
अभी की पुष्करिणियां (बावड़ियां भी पूर्व की अपेक्षा हीन होते भी लोगों के काम आती हैं। यहां भी पूर्व के समान दाष्टांन्तिक जोड़ लेना चाहिये ।
इस भांति अनेक प्रकार से जीत उपलब्ध होती है । अधिक क्या कहा जाय ?
जं मन्त्रहा न सुत्ते, पांडेसिद्ध' नेव जीववहहेऊ !
तं सम्बंधि पमाणं चारितघणाण भणियं च ॥ ८४ ॥
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मूल का अर्थ - जो सूत्र में सर्वथा निषेध न हो, और जीव वध का हेतु न हो, वह सर्व चारित्रवन्तों को प्रमाण है ।
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टीका का अर्थ- जो सर्वथा सर्व प्रकार से सूत्र में सिद्धान्त में प्रतिषिद्ध याने निवारित किया न हो, मैथुन सेवन के समान । कहा भी है कि
जिनेश्वर ने एकान्त में कुछ भी अनुज्ञात नहीं किया। वैसे ही मैथुन छोड़कर एकान्त में कुछ प्रतिषिद्ध भी नहीं किया । कारण कि- मैथुन तो राग-द्वेप बिना हो सकता ही नहीं। जिससे उसे एकान्त में निषेध किया है। तथा जो आधा-कर्म ग्रहणवत् जीववध का कारण भी न हो, वैसा सर्व अनुष्ठान चारित्र को धन गिनने वाले चारित्रिक साधुओं को प्रमाण है। क्योंकि वसी आगम की अनुज्ञा है । पूर्वाचार्यों ने जो कहा है सो बताते हैं -
अवलंबिण कज्जं जं किंपि समायरंति गीयत्था । थोवावराह बहुगुण सव्वेसिं तं प्रमाणं तु ॥ ८५ ॥