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प्रवचन- २
ग्रन्थ का सम्बन्ध :
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प्रयोजन के साथ-साथ ग्रन्थकार ने 'सम्बन्ध भी बताया है। अभिधेय - अभिधानरूप सम्बन्ध है इसका । धर्मतत्त्व यहाँ अभिधेय है यानी धर्म कथनीय है और यह ग्रन्थ अभिधान है। धर्मतत्त्व के साथ ग्रन्थ का सम्बन्ध बताया गया । उसका शाश्वत् धर्म से क्या लेना-देना? है लेना-देना ! ग्रन्थ उस धर्म को बताता है, धर्म का अभिधान करता है। धर्मतत्त्व स्वयं मूक है, ग्रन्थ बोलता है ! इसलिए ग्रन्थ उपादेय है, आवश्यक है।
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इस प्रकार ‘मंगल’, ‘अभिधेय', 'प्रयोजन' और 'सम्बन्ध' बताकर ग्रन्थकार धर्म का फल बताते हैं ! धर्म का स्वरूप अभी नहीं बताते, फल बताते हैं। आचार्यश्री ने मानव मन का गहरा अध्ययन किया होगा, ऐसा इससे प्रतीत होता है। मानव मन का यह स्वभाव है - कोई भी काम करना होगा, 'इस काम का फल क्या है ? इस कार्य से क्या मिलेगा ? क्या लाभ होगा?' मन में निर्णय हो जाएगा कि इस कार्य का मुझे इस प्रकार का फल मिलेगा... अच्छा फल मिलेगा' इसके बाद ही वह उस कार्य का स्वरूप जानना चाहेगा ।
धर्म करने से फायदा क्या ?
'धर्म क्यों करना चाहिए ? धर्मकार्य करने से हमें क्या लाभ होगा ?' यह प्रश्न बुद्धिमान मनुष्य के मन में पैदा होगा ही। बुद्धिमान मनुष्य फल का विचार किये बिना कोई कार्य नहीं करेगा। आप इस दृष्टि से अपने जीवन की तमाम प्रवृत्तियों को देखो। सोचो, आपकी तमाम क्रियाएँ किसी न किसी फलप्राप्ति के लक्ष्य से होती होंगी। आप भोजन करते हैं, इसलिए कि भोजन से क्षुधा का दुःख दूर होता है, क्षुधा शान्त होती है । यदि भोजन करने से क्षुधा शान्त नहीं होती तो आप भोजन नहीं करते! आप पानी पीते हो, इसलिए कि आपका प्यास का दुःख पानी पीने से दूर होता है । आप दान देते हो, क्यों? आपको फल का ज्ञान है : दान देने से कीर्ति बढ़ती है, पुण्यकर्म बंधता है अथवा धन की लालसा कम होती है, इसलिए आप दान देते हो। आप वस्त्र धोने की क्रिया करते हो-क्यों? धोने से वस्त्र साफ होता है, उज्ज्वल होता है - यह हुआ
फल का ज्ञान।
जिस फल को पाने की आपकी इच्छा होगी, उस फल को देनेवाली क्रिया आप करेंगे। आपके मन को विश्वास हो जाना चाहिए कि 'यह क्रिया करने से मेरा इच्छित फल मुझे मिल जायेगा ।' हम सब करते हैं इस प्रकार सारी