Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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को नष्ट कर दिया है, जो भव्य है, सम्यग्दृष्टि है, ज्ञानसम्पन्न है तथा द्विविध परिग्रह का त्यागी है, संसार सुखों से विरक्त है, वैराग्य को प्राप्त है, परम उपशम भाव को प्राप्त है, विविध प्रकार के तपों से जिसका शरीर तप्त है, आत्मस्वभाव में लीन है, पर द्रव्य की आसक्ति से रहित है तथा जिसके रागद्वेष मंद हो चुके हैं वही महापुरुष मरण समय आराधना का आराधक हो सकता है।
जो मानव रत्नत्रयात्मक विशुद्ध आत्मा की भावना को छोड़कर पर-द्रव्य का चिंतन करता है वह अपनी आराधना का विराधक कहा गया है। उन्होंने यह भी कहा है कि जो निश्चय नय का आश्रय लेकर स्व-पर का भेद नहीं जानता है उसको न तो रत्नत्रय की प्राप्ति होती है और न उसकी समाधि होती है।
आराधक के लक्षणों को बताते हुए आचार्यदेव ने सात विशेषण दिये हैं- अर्ह, संगत्याग, कषायसल्लेखना, परीषह रूपी सेना को जीतना, उपसर्ग को सहन करना, इन्द्रिय रूपी मल्लों को जीतना और मनरूपी हाथी के प्रसार को रोकना।
(१) अहँ का अर्थ योग्य होता है यानी संन्यास धारण करने योग्य पुरुष ।
संन्यास धारण करने योग्य पुरुष वही होता है जो गृहव्यापार से विमुक्त है, पुत्र-पौत्रादिक के ममत्व से रहित है, धन एवं जीवन की आशा से विमुक्त है।
संन्यास का शब्दार्थ है सभ्-सम्यक्प्रकारेण, नि-नितरां, असनं परित्यजनं इति संन्यासः' व्युत्पत्ति के अनुसार अच्छी तरह से रगादि विभाव भावों का छोड़ना संन्यास है।
___ जो अनादिकालीन मोह के कारण शरीर, धन, पुत्र-पौत्रादिक, पद-पदार्थों के संरक्षण एवं संवृद्धि के लिए रात-दिन संलग्न है; ये पर-पदार्थ मेरे हैं, मैं इनका स्वामी हूँ; इस विपरीत बुद्धि को नहीं छोड़ता है वह संन्यास धारण करने योग्य नहीं है।
जब तक वृद्धावस्था रूपी व्याघ्री आक्रमण नहीं करती है, जब तक इन्द्रियाँ विकल नहीं हैं, जब तक बुद्धि हिताहित का विचार करने में समर्थ है, आयु रूपी जल अवशेष है, जो आहार, आसन और निद्रा को जीतने में समर्थ है, अंगोपांग और शरीर के बन्धन शिथिल नहीं हुए हैं, मृत्यु के भय से शरीर कम्पित नहीं हो रहा है, तप-स्वाध्याय और ध्यान में उत्साह है और स्वयं निर्यापक होकर अपनी क्रिया वा संस्तरण करने में समर्थ है वहीं पुरुष संन्यास धारण करने के योग्य है।
इस प्रकार व्यवहार संन्यास का कथन करके आचार्यदेव ने निश्चय संन्यास की चर्चा करते हुए कहा है कि वास्तव में जो साधु निर्विकल्प समाधि में लीन है, स्वकीय स्वभाव में संलग्न है वही संन्यास धारण करने योग्य है।
(२) संगत्याग - संग शब्द का अर्थ परिग्रह है। वह परिग्रह बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो