Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-६१
हवई भवति। कोसौ। आराहओ आराधकः। किंविशिष्टः। णिरओ निरतः। तत्परः। क्व अप्पसहावे आत्मस्वभावे निर्मलतरपरमचिदानंदलक्षणे स्वस्वरूपे। पुनः कथंभूतः। वजियपरदव्वसंगसुक्खरसो वर्जितपरद्रव्यसंगसौख्यरसः वर्जितो निराकृतः सकलसंगाहिरा सम्मा:मामिणानां परम्पाणां संगेन संयोगेन यानि पंचेंद्रियविषयोद्भवानि सुखानि तेषां रसोभिलाषो येन। पुनः कथंभूतः। णिम्महियरायदोसो निर्मथितरागद्वेषः आत्मसमानसमस्तजीवराशिविलोकनतया निर्मथितौ स्फेटितौ रागद्वेषौ इष्टानिष्टयोः प्रीत्यप्रीतिलक्षणौ येन। क्व । भरणे मरणपर्यन्तं । एवंगुणविशिष्टो मरणं मर्यादीकृत्य आराधयतीति तात्पर्यार्थः ॥१९॥ ननु रत्नत्रितयमयमात्मानं मुक्त्वा परद्रल्यचिंता करोति यः कथंभूतो भवतीति पृच्छंत प्राहु
जो रयणत्तयमइओ मुत्तूणं अप्पणो विसुद्धप्पा। चिंतेइ य परदव्वं विराहओ णिच्छयं भणिओ॥२०॥
यो रत्नत्रयमयं मुक्त्वात्मनो विशुद्धात्मानम् ।
चिंतयति च परद्रव्यं विराधको निश्चितं भणितः ।।२०।। भणिओ भणितः प्रतिपादितः। केन। णिच्छर्य निश्चयेन परमार्थलक्षणेन। कोसौ। विराहओ विराधकः हेयोपादेयवस्तुपरिज्ञानविकल्पतया यथोक्तलक्षणाराधकः पुरुषविलक्षणः स पुरुषो विराधको भवतीत्यर्थः। यः किं करोति । जो चिंतेइ यश्चिन्तयति। किं तत्। परदव्वं परद्रव्यं निजात्मनो भिन्नं यद्वस्तुस्वरूपं इह निजात्मन एवोपादेयत्वात् । ननु निजात्मन एवोपादानेन पंचपरमेष्ठिनामप्याराधको विराधक:
जो भव्यात्मा, निर्मलतर परम चिदानन्द एकलक्षण निज स्वभाव में लीन रहता है, जिसने स्वभाव से विलक्षण, पर-द्रव्य के संयोग से उत्पन्न, पंचेन्द्रिय विषय सुख रस की अभिलाषा का त्याग कर दिया है, अपनी आत्मा के समान समस्त जीवराशि का अवलोकन करने से जिनके हृदय से, इष्ट एवं अनिष्ट पदार्थों में होने वाली प्रीति (राग), अप्रीति (द्वेष) नष्ट हो गयी है, ऐसे प्राणी मरण की मर्यादा करके आत्मा की आराधना कर सकते हैं, अन्य में आराधना करने की क्षमता नहीं है।।१९।।
रत्नत्रयमय शुद्धास्मा की भावना को छोड़कर अन्य द्रव्य की चिंता करने वाले का क्या होता है? ऐसा पूछने वाले को आचार्य कहते हैं
___जो प्राणी रत्नत्रयमय, निज शुद्धात्मा के ध्यान को छोड़कर परद्रव्य का चिन्तन करता है वह निश्चय से आराधना का विराधक (घातक) होता है ।।२०।।
जिसको हेय और उपादेय वस्तु का ज्ञान है वह आराधक कहलाता है। जिसको हेय उपादेय का ज्ञान नहीं है वह विराधक कहलाता है। अथवा निज आत्मा से भिन्न पर-द्रव्य का चिन्तन करने वाला विराधक होता है। क्योंकि निज आत्मा को उपादेय मानने वाला ही आराधक है।
__ शंका - यदि पर-द्रव्य का चिन्तन करने वाला विराधक है और शुद्धात्म द्रव्य का चिन्तन करने वाला आराधक है क्योंकि शुद्धात्मा ही उपादेय है तो फिर पंच परमेष्ठी का ध्यान करने वाला आराधक कैसे हो सकता है? क्योंकि पंच परमेष्ठी भी परद्रव्य हैं।