Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 175
________________ आराधनासार-१४० हुषीकजं सुखं सुखं न भवति ततस्तस्मिन् वैमुख्य विधातव्यमिति स्तवयति इंदियगयं ण सुक्खं परदव्वसमागमे हवे जम्हा। तम्हा इंदियविरई सुणाणिणो होइ कायव्वा ॥५७॥ इन्द्रियगतं न सौख्यं परद्रव्यसमागमे भवेद्यस्मात् । तस्मादिद्रियविरतिः सुज्ञानिनो भवति कर्तव्या।।५७।। भो क्षपक इंदियगयं पा सुक्खं इन्द्रियगतं न सौख्य सौख्यं न भवति। कीदृशं । इन्द्रियगत हुषीकसंभवं विचार्यमाणं सुखं न भवति किंतु सुखाभावमेव । कुत: सौख्यं न भवति इत्याह । परद्रव्यसमागमे सति भवेत् जायेत परद्रयाणि अन्नपानवसनतांबूलस्रक्चंदनवनितादीनि तेषां समागमः सम्यगागमनं परद्रव्यसमागमस्तस्मिन् परद्रव्यसमागमे। यतः परद्रव्यसमागमादिंद्रियजं सुखमुपजायते ततश्च दुःखमेव | यदुक्तम् सुखमायाति दुःखमक्षजं भजते मंदमतिर्न बुद्धिमान् । मधुलिप्तमुखाममंदधीरसिधारां खलु को लिलिक्षति ।। यदींद्रियजं सुखं वास्तवं न भवति तर्हि किं कर्तव्यमित्याह । तम्हा इंदियविरई तस्मात्कारणात् इंद्रियविरतिः विरमणं विरति: इंद्रियेभ्यो विरतिः इंद्रियविरतिः । इंद्रियजेषु सुखेषु वैमुख्यमित्यर्थः । कायव्वा कर्तव्या इंद्रियसंभवसुखविरतिः कर्तव्या हवे भवेत्। सा कस्य कर्तव्या भवतीत्याह । सुणाणिणो सुज्ञानिनः शोभनं ज्ञानं परमानंदामृतसंभृतावस्थस्य परमात्मनः परिज्ञानं शोभनं ज्ञानमुच्यते सुज्ञानमस्यास्तीति सुज्ञानी तस्य सुज्ञानिनः ततो विषयजं सुख्खं विनश्वरं निस्सारं ज्ञात्वा अविनश्वरे स्वात्मोत्थे सुखे रतिर्विधातव्या सुज्ञानिन इति भावार्थः ।।५७ ॥ इंद्रियजयाथिकारः। इन्द्रियजन्य सुख, सुख नहीं है, दुःखरूप है, इसलिए इन विषयरों से विमुख होना चाहिए. ऐसा कहते हैं इन्द्रियसुख वास्तव में सुख नहीं है क्योंकि वह पर-द्रव्य के समागम से होता है। इसलिए ज्ञानी जनों को इन्द्रियसुख से विरक्त होना चाहिए।।५७।। अन्न, पानी, वस्त्र, ताम्बूल, माला, चन्दन, स्त्री आदि पर-द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होने वाला इन्द्रियजन्य सुख वास्तव में सुख रूप नहीं है, अपितु सुखाभास है। राग के उदय के कारण वह सुख रूप प्रतोत होता है। इसलिए इन्द्रियसुख दु:ख रूप ही है। कहा भी है "इन्द्रियजन्य सुख, दुखरूप है; मूर्ख अज्ञानी उनको सेवन करते हैं, ज्ञानीजन नहीं। मधुलिा तलवार की धार को कौन ज्ञानी चाटना चाहते हैं? अर्थात् ज्ञानी जन उसको चाटना नहीं चाहते।" इन्द्रियसुख आकुलता का कारण है, इसलिए इन विषय-वासनाओं से विरक्त होना हो श्रेष्ठ है। परमानन्द अमृत से उत्पन्न अवस्था वाले परमात्मा का ज्ञान ही सुझान है। उस शुद्धात्मा के ज्ञान के रसिक ज्ञानीजनों को विषयजन्य सुखों को विराशीक और निस्सार समझकर उनसे विरक्त होना चाहिए और अविनाशी, सारभूत, अनन्त सुख के कारणभूत स्वात्मोत्थ सुख में रति, अनुराग, प्रीति करनी चाहिए। हे क्षपक ! अनादिकाल से इन्द्रियजन्य सुखों का अनुभव करके तू अनन्त दुःखों का पात्र बना है। इसलिए तृष्णा को उत्पन्न करने वाले, हेयोपादेय ज्ञान से हृदय को शून्य करने वाले और दुर्गति में ले जाने वाले, इन्द्रियजन्य विषयों की अभिलाषाओं का तू त्याग कर और स्वकीय शुद्धात्मा में रमण करने का प्रयत्न कर ॥१७॥ ।। इन्द्रियविजय-अधिकार पूर्ण हुआ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255