Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - १७१
योगिनो नियमितपंचेंद्रियस्य शुद्धात्मस्वरूपनिष्ठस्य मनश्चित्तं ध्याने धर्मशुक्लरूपे निर्विकल्पसमाधिलक्षणे वा विलीयते विलयं विनाश याति यतश्चिद्रूपे स्थितं लग्नं मनोऽवश्यमेव विलीयते। अतएव परात्मनि स्थिति न करोति । यदुक्तम्
नूनमत्र परमात्मनि स्थितं स्वातमंतमुपयाति तबहिः।
तं बिहाय सततं भ्रमत्यदः को बिभेति मरणान्न भूतले ॥ किमिव ध्याने चित्तं विलीयत इति पृष्टे प्राह। लवणव्व सलिलजोए लवणमिव सलिलयोगे सलिलेन योगः सलिलयोगस्तस्मिन् सलिलयोगे। यथा लवणं पयोयोगमासाद्य सद्यो विलीयते तथा यस्य चित्तं शुद्धात्मयोगे विलयमुपढौकते तस्य चिदानंदोवश्य प्राकट्यमुपगच्छति । अस्मिंश्यात्मनि अनुभवमुपवाते द्वैतं न प्रतिभाति । यदुक्तम्
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् । किमपरमभिदध्ये धाम्नि सर्वंकषेस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव॥
जाता है उस समय वह मन अवश्य ही संकल्प-विकल्पों से रहित हो जाता है, मन का विलय हो जाता है। इसलिए वह मन पर-पदार्थ में स्थिति नहीं करता है, परपदार्थ के चिन्तन में नहीं जाता है। सो ही कहा है
निश्चय से यह मन जब परमात्मा में स्थित होता है तब अंत को प्राप्त हो जाता है, मर जाता है। किन्तु यह मन, परमात्मा के चिंतन को छोड़कर निरंतर बाह्य में भ्रमण करता रहता है, क्योंकि इस भूतल पर मरने से कौन नहीं डरता, सभी डरते हैं।
ध्यान में चित्त किस प्रकार विलीन होता है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं- जिस प्रकार नमक की डली पानी का संयोग पाकर पानी रूप हो जाती है, पानी और नमक पृथक्-पृथक् नहीं रहते हैं, उसी प्रकार जिसका चित्त शुद्धात्मा के उपयोग में लीन होता है तब वह आत्म-स्वरूप हो जाता है, तब ध्यान
और ध्याता का भेद नहीं रहता है। जिसका मन विलीन होता है, निर्विकल्प समाधि में लीन उस योगी को चिदानन्द अवश्य प्रकट होता है। इस चिदानन्द आत्मा का अनुभव आ जानेपर द्वैत भाव नहीं रहता है, ध्याता, ध्यान, ध्येय का विकल्प नहीं रहता है। सो ही समयसार कलश में अमृतचन्द्र आचार्य ने कहा है
सारे भेदों को गौण करने वाले शुद्धनय के विषयभूत चैतन्य, चमत्कार मात्र, तेजपुंज, शुद्ध आत्मा का अनुभव करने पर नयश्री का उदय नहीं होता है, प्रमाण अस्त हो जाता है, निक्षेप कहाँ चले जाते हैं हम नहीं जान सकते, इससे अधिक क्या कहें ? शुद्धात्मा का अनुभव आने पर द्वैत प्रतिभासित ही नहीं होता है अर्थात् शुद्धात्मा के अनुभव में प्रमाण, नय, निक्षेप का अनुभव नहीं आता है, सारे विकल्प नष्ट हो जाते हैं।