Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराथनासार -२०२
संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसा ।
आत्मानमात्मवान् ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थितम् ।। एवं कुर्वाणा आराधनाराधकाः सिध्यतीत्यर्थः ।।११२|| अथ ये व्यवहार निश्चयाराधनाया उपदेशका आराधकाश्च तान्नमस्करोमीत्याहआराहणाइ सारं उवइट्ट जेहि मुणिवरिदेहि । आराहियं च जेहिं ते सव्वेहं पवंदामि ॥११३॥
आराधनायां सारमुपदिष्टं यैर्मुनिबरेन्द्रः।
आराधितं च यैस्तान् सर्वानहं प्रवंदे ।।११३॥ जेहिं उवइष्ट यतिसम्यगाराधनारहस्यै; उपदिष्टं आदिष्ट कथित। कीदृशैर्यैः। मुणिवरिंदेहि प्रत्यक्षज्ञानिनो मुनयस्तेषां वरा गणधरास्तेषामिंद्राः स्वामिनस्तीर्थकरास्ते मुनिवरेंद्रास्तै: मुनिवरेन्द्रैः तीर्थकृद्भिः । किं उपदिष्टं यैः । आराधनायां सारं सर्वस्या आराधनायाः सार: टंकोत्कीर्णचित्स्वरूपपरमात्माराधनालक्षणः स उपदिष्टो यैर्मुनिवरेंद्रैस्तान् प्रवंदे नमस्करोमि । न केवलं तान् आराधनोपदेशकान् ब्रटे। आराहियं च जेहिं यैर्मुनिवरेंद्रराराधितं द्रव्यभावाराधनासारं तान् सर्वानपि विधा नमस्करोमीत्यर्थः ।।११३।।।
"अपनी इन्द्रियों के समूह का निरोध कर के आत्मा एकाग्र चित्त से अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा में स्थित अपनी आत्मा का ध्यान करे।"
इस प्रकार बाह्य-अभ्यन्तर २४ प्रकार के परिग्रह का त्याग करके और निर्ग्रन्थ लिंग को धारण कर अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा में स्थित अपनी आत्मा का जो ध्यान करता है. निर्विकल्प समाधि में लीन होकर स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा अपनी आत्मा का वेदन करता है वही भव्यात्मा वास्तव में आराधना का आराधक होकर मुक्तिपद को प्राप्त करता है। ऐसा जानकर हे क्षपक ! तुम्हें स्वात्मा का ध्यान करने का प्रयत्न करना चाहिए।११२ ।।
अन्न, जो निश्चय और व्यवहार आराधना के उपदेशक और आराधक हैं उनको नमस्कार करता हैं। ऐसा आचार्य कहते हैं
जिन मुनिवरों ने आराधना के सार का उपदेश दिया है और जिन्होंने आराधना के सार की आराथना उन सर्व मुनिवरों की मैं वन्दना करता हूँ॥११३॥
जिन प्रत्यक्ष ज्ञानी गणधरों में श्रेष्ठ तीर्थंकर केवली भगवान ने आराधना के टंकोत्कीर्ण चित् (चैतन्य) स्वरूप परमात्मा की आराधनारूप आराधना के सार का कथन किया है और जिन्होंने जिनेन्द्र द्वारा कथित आराधना के सार की आराधना की है, उन आराधना के सार के उपदेशक और आराधक मुनिवरों को मैं मन-वचन-काय से नमस्कार करता हूँ ।।१५.३॥