Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 245
________________ आराथनासार-२१० स्वाहंकारपरिहारं विदधानः आचार्य: प्राह ण य मे अत्थि कविगंण मुणमो छंदन किंदि। णियभावणाणिमित्तं रइयं आराहणासारं ॥११४॥ न च मे अस्ति कवित्वं न जाने छंदोलक्षणं किंचित् । निजभावनानिमित्तं रचितमाराधनासारम्॥११४|| ण य मे अस्थि कवितं मे मम कवित्वं व्याकरणविशुद्ध शब्दार्थालंकारसमन्वितं नास्ति। तथा ण मुणामो छंदलक्खणं किंपि छंद: पिंगलाद्याचार्यप्रणीतं छंदःशास्त्रं छंदश्चूडामण्यादिकं न जाने इत्यर्थः। तथा लक्षणं व्याकरणं जैनेंद्रादिकं अथवा कवित्वस्य गुणलक्षणं न जानामि किंचित् स्तोकमपि। यदि न किंचिज्जानासि तर्हि किमर्थमारचितवानसि इत्युक्ते प्राह। णियभावणाणिमित्तं निजभावनानिमित्त केवलमात्मभावनानिमित्तं आराधनासारो मया व्यरचि कृतः निजभावनां निमित्तीकृत्य मयायमाराधनासाराख्यो ग्रंथो व्यरचि न पुनर्यशोनिमित्तं । यदुक्तम् न कवित्वाभिमानेन न कीर्तिप्रसरेच्छया। कृति: किंतु मदीयेयं स्वबोधायेव केवलम् ।। यद्यत्र प्रवचनविरुद्धं तदा द्रव्यभावश्रुतकेवलिनो दूषणमपाकृत्य विशुद्धममुं ग्रंथं कुर्वन्त्विति ब्रवीति'आराधनासार' के रचयिता देवसेनआचार्य स्वकीय अहंकार का परित्याग करते हुए कहते हैं न मुझ में कवित्व है, न मैं किंचित् छन्द-लक्षण जानता हूँ, केवल निजभावना निमित्त मैंने आराधनासार की रचना की है ।।११४॥ देवसेन आचार्य कहते हैं कि न मैं कवि हूँ, न व्याकरण से विशुद्ध शब्दार्थ-अलंकार जानता हूँ तथा पिंगल आदि आचार्यप्रणीत छन्दशास्त्र को और चूड़ामणि आदि छन्द को भी नहीं जानता हूँ। तथा किंचित् मात्र भी जैनेन्द्रादि व्याकरण वा कवित्व के गुण-लक्षणों को नहीं जानता हूँ। शंका - जब आप कुछ भी नहीं जानते हो तो फिर आराधनासार की रचना कैसे की? उत्तर - इसकी रचना का निमित्त निजी भावना ही है। केवल आत्मविशुद्धि के निमित्त ही मैंने इस आराधनासार की रचना की है। इस निमित्त से मेरी आत्मविशुद्धि हो, मुझे निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति हो, यही मेरी भावना है। यही कामना है, इसलिए इस आराधनासार ग्रन्थ की मैंने रचना की है; ख्याति, पूजा-लाभ के वशीभूत होकर नहीं की है। कहा भी है "न कवित्व के अभिमान से मैंने इस ग्रन्थ की रचना की है और न कीर्ति के प्रसार की इच्छा से। किन्तु केवल स्वबोध के लिए मैंने इस कृति (ग्रन्थ) की रचना की है" ||११४॥ अब यहाँ पर देवसेन आचार्य कहते हैं कि मैंने इस ग्रन्थ में कोई शास्त्रविरुद्ध बात कही हो तो द्रव्यभाव श्रुतकेवली मेरे इस ग्रन्थ की विशुद्धि करें; वे ऐसी प्रार्थना करते हैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255