Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 248
________________ आराधनासार-२१३ तत्पट्टोदयभूधरेऽतिमहति प्राप्तोदये दुर्जयं, रागद्वेषमहांधकारपटलं संवित्करैर्दारयन् । श्रीमान् राजात हेमकीर्तितरणिः स्फीतां विकाशश्रियं, भव्यांभोजचये दिगंबरपथालंकारभूतो दधत् ॥४॥ विदितसमयसारजोतिषः क्षेमकीर्ति- हिमकरसमकीर्तिः पुण्यमूर्तिर्विनेयः। जिनपतिशुचिवाणीस्फारपीयूषवापी- सपनशमिततापो रत्नकीर्तिश्चकास्ति ॥५॥ . आदेशमासाद्य गुरोः परात्मप्रबोधनाय श्रुतपाठचंचु। आराधनाया मुनिरत्नकीर्तिष्टीकामिमां स्पष्टतमा व्यधत्त ॥६।। इति प्रशस्तिः । इति पंडिताचार्यश्रीरत्नकीर्तिदेवविरचिताराधनासारटीका समाप्ता । रूपी पर्वतपर हेमकीर्ति नामक सूर्य का उदय हुआ था, जिनकी वृद्धिप्राप्त विकासश्री शोभित थी, जिन्होंने भव्य रूपी कमलों को विकसित करने के लिए दिगम्बर मार्ग को स्वीकार कर दिगम्बर मुद्रा धारण की थी, जिन्होंने स्वकीय ज्ञानरूपी किरणों के द्वारा रागद्वेष रूपी महा अन्धकार पटल को विदारण किया था॥४॥ जानलिया है समयसार की ज्योति (ज्ञान) को जिन्होंने, चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल है कीर्त्ति जिनकी, पवित्र है शरीर जिनका, जिनेन्द्र भगवान के मुख से निर्गत वाणी रूपी विशाल अमृत की वापिका में स्नान करके शमन किया है मानसिक और शारीरिक ताप को (सन्तापको) जिन्होंने, ऐसे रत्नकीर्ति नाम के दिगम्बर मुनि हुए थे॥५॥ श्रुतपाठ में चतुर मुनि रत्नकीर्ति ने गुरु का आदेश प्राप्त कर परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए और आराधनासार की स्पष्टता के लिए इस टीका की रचना की है॥६॥ इति पंडिताचार्य श्री रत्नकीर्ति मुनिराज के द्वारा विरचित आराधनासार टीका पूर्ण हुई। परमपूज्य प्रात:स्मरणीय १०८ श्री आचार्य शांतिसागर महाराज के प्रथम शिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज की शिष्या इन्दुमती आर्यिका की प्रेरणा से वीरसागर महाराज के कर-कमलों से दीक्षित सुपार्श्वमती आर्यिका ने इसकी हिन्दी टीका कलकत्ता नगर के चातुर्मास में लिखी और वीर संवत् २५२१, वि. २०५२ में सावन मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन पूर्ण की।

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