Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-२०८
क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् ।
आसनं शयनं कुप्यं भांडं चेति बहिर्दश ।। अभ्यंतरश्च परिग्रहश्चतुर्दशभेदभिन्नः । यदुक्तम् -
मिथ्यात्ववेदरागाहासप्रमुखास्तथा च षड् दोषाः ।
चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यंतरा ग्रंथाः ।। इत्येव लक्षणं सर्वपरिग्रहं चइऊणं त्यक्त्वा विमुच्य । न केवलं संगत्यक्त्वा । तथा लिंगं धरिऊण शिणसाशा गाण: लिं, नमतादिलयागं धृत्वा सम्यक् प्रकारेण स्वात्मनि जिनदीक्षामारोप्येत्यर्थः । यद्यपि लिंग जात्यादिविकलो निश्चयनयापेक्षया मोक्षहेतुर्न भवति। यदुक्तम्
लिंगं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः ।
न मुच्यते भवात्तस्माद्ये ते लिंगकृताग्रहा: ।। तथापि व्यवहारेण जिनलिंग मोक्षाय भवति । तथा अप्पाणं झाऊणं आत्मानं च ध्यात्वा । यदुक्तम्
अंतरंग और बहिरंग के भेद से परिग्रह दो प्रकार का है। बहिरंग परिग्रह क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, आसन, शयन, कुप्य और भाण्ड के भेट से दस प्रकार का है। जिसमें खेती की जाती है उसको क्षेत्र कहते हैं। धर को वास्तु कहते हैं। सोना-चाँदी, हीरा-पन्ना आदि को धन कहते हैं। गेहूँ, चावल. मुंग आदि को धान्य कहते हैं। दासी-दास द्विपद कहलाते हैं। गाय, भैंस आदि चतुष्पद कहलाते हैं। बैठने के चौकी पाटा आदि आसन, जिस पर सोया जाता है वह शयन कहलाता है, वस्त्रादि कुप्य कहलाते हैं और बर्तन आदि भाण्ड कहलाते हैं। ये दश प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं।
अभ्यन्तर परिग्रह भी चौदह प्रकार का है- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तीन वेद, मिथ्यात्व और चार कषाय ये १४ अंतरंग परिग्रह हैं।
__ इन चौदह प्रकार के परिग्रह का त्याग करके और जिनेन्द्र भगवान के स्वरूप निर्ग्रन्थ लिंग को धारण करके, स्वकीय आत्मा में जिनदीक्षा का आरोपण करके स्वात्मा का ध्यान करता है। लिंग धारण करने मात्र से मुक्ति नहीं होती, पूज्यपाद स्वामी ने भी समाधिशतक में कहा है
___ "लिंग देह के आश्रित है और देह आत्मा का भव (संसार) कहा गया है। इसलिए जो लिंग का आग्रह करने वाले हैं, वे भी संसार से नहीं छूटते हैं।" अतः यद्यपि लिंगादि विकल्प निश्चय नथ से मुक्ति के कारण नहीं हैं, तथापि व्यवहार नय से जिनलिंग धारण किये बिना मुक्ति नहीं होती, ऐसा अकाट्य नियम है। ऐसा जानकर व्यवहार में जिनेन्द्र मुद्रा रूप निर्ग्रन्थ लिंग को धारण कर स्वात्मा का ध्यान करना चाहिए। पूज्यपाद स्वामी ने कहा है