Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 241
________________ आराधनामार-२०६ क्व । उत्तमदेवमणुस्से उत्तमदेवमानुषे उत्तमदेवत्वं इंद्रादिपदप्राप्तिलक्षणं उत्तममानुषत्वं चक्रवर्तिपदवी उत्तमदेवश्च उत्तममानुषश्च उत्तमदेवमानुषस्तस्मिन् उत्तमदेवमानुषे चक्रित्वत्रिदशेंद्रतादिपदवीमनुभूय तदनु सिद्धिसुखभाजो भवंतीत्यर्थः । के सियति । आराहणउवजुत्ता आराधनोपयुक्ताः तथा झाणस्था ध्यानस्था ध्याने तिष्ठतीति ध्यानस्था: धर्मशुक्लादिध्यानभाजः । तथाहि । बाह्याभ्यंतरपरिग्रहपरित्यागमाधाय गृहीतसंन्यासः निर्मलतरसमयसारसरणिपरिणतांत:करणः निश्चयव्यवहाराराधनोपयोगयोगी वर्धमानपुण्यप्रकृत्युदयजनितस्वरैश्वर्यादिकमनुभूय भत्र्यात्मा सिध्यतीत्यसंदेहमिति ।।११० ।। अतितपश्चरणादिकं कुर्वाणोपि स्वात्मध्यानबहिर्भूतो मोक्षभाग न भवतीत्युपदिशति अइ कुणउ तवं पालेउ संजमं पढउ सयलसत्थाई। जाम ण झावइ अप्पा ताम ण मोक्खो जिणो भणइ ।१११॥ अति करोतु तपः पालयतु संयम पठतु सकलशास्त्राणि । यावन्न ध्यायत्यात्मानं तावन्न मोक्षो जिनो भणति ।।१११ ।। अइ कुणउ करोतु अनुचरतु। कोसौ। प्राणी। किं तत्। तवं तपः पक्षे उपवासादिकं । कथं । अतीव उग्रोग्रं तथा जामेड प्रतिष्पाताई। कं; संजन इंद्रियादिलयमा तथा पढउ पठतु अधीतां। कानि । सयलसत्थाई सकलानि च तानि शास्त्राणि सकलशास्त्राणि व्याकरण-छंदोलकारतर्कसिद्धांतादीनि परं जाम जो भव्यात्मा क्षपक, चार प्रकार की आराधना में लीन होते हैं, धर्मध्यान वा शुक्लध्यान में स्थित होते हैं वे क्षपक चक्रिपदत्व आदि मानव भव के और इन्द्रत्व आदि देवों के उत्तम-अनुपम सुखों को भांगकर मोक्षपद को प्राम करते हैं। तथाहि, बाह्य एवं अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर जिसने संन्यास ग्रहण किया है, जिसका हृदय निर्मलतर समयसार रूपी नदी में (नदी के जल में) परिणत है, लीन है, निश्चय और व्यवहार आराधना में उपयुक्त है योग (मन-वचन-काय) जिसका ऐसा योगी, वर्धमान पुण्य प्रकृति के अनुभाग के फलस्वरूप स्वर्ग के वा मानव के ऐश्वर्य का अनुभव करके, उनको भोग करके मुक्तिपद को प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है ।।११०।। अतितीव्र तपश्चरण करता हुआ भी जो क्षपक स्वात्मध्यान से बहिर्भूत है वह मोक्ष का भागी (मोक्षगामी) नहीं होता है, ऐसा उपदेश देते हैं ___ जो प्राणी घोर तपश्चरण करते हैं, उत्कृष्ट संयम का पालन करते हैं और सकल शास्त्रों को भी पढ़ते हैं परन्तु जब तक स्वकीय आत्मा का ध्यान नहीं करते हैं तब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ॥१११॥ जो क्षपक मास, दो मास आदि उपवास करके घोर तपश्चरण करता हो आतापन आदि योग धारण कर उन तप तपता हो, प्राणी संयम, इन्द्रिय संयम का पालन करता हो और तर्क, छन्द, व्याकरण, अलंकार, सिद्धान्त आदि सारे ग्रन्थों का पठन-पाठन करता हो परन्तु जब तक अपनी आत्मा का ध्यान नहीं

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