Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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भवं । केचित् अनुद्धृतपुण्यप्रकृतयः । कीदृशा भवंति । सव्वैट्ठाणवासिणो सर्वार्थसिद्धी निवसतीत्येवंशीलाः सर्वार्थसिद्धिनिवासिन: कालादिसामग्रीमपेक्ष्यमाणाः सर्वार्थसिद्धिमाश्रित्य तिष्ठतीत्यर्थः । सर्वार्थसिद्धिगमनकारणमाह । किं विशिष्टाः केचित् । उत्वरियसेसपुण्णा उद्वृत्ता अनच्छन्ना शेषाः अविशिष्टाः पुण्यापुण्यप्रकृतयो येषां येषु वा उद्वृत्तशेषपुण्याः । किं कृत्वा सर्वार्थसिद्धिनिवासिनो भवंति । आराहिऊण सम्यगाराध्य | किमाराध्य । चउब्विहाराहणाई जं सारं चतुर्विधाराधनायां मं सारं चतुर्विधाराधनासु मध्ये यः सारः शुद्धबुद्धैकस्वभाव: परमात्मा तं चतुर्विधाराधनायां सारं स्वस्वरूपलक्षणमाराध्य पंचलब्धिसामग्रीअभावात् सर्वार्थसिद्धिनिवासिनो भवंति केचिदित्यर्थः ॥ १०८ ॥
ये जघन्या आराधकास्तेप्याराधनासामर्थ्यात् कियत्स्वपि भवेष्वतीतेषु मोक्षमासादयतीति व्यनक्तिजेसिं हुंति जहण्णा चउव्विहाराहणा हु खवयाणं ।
सत्तभवे गंतुं तेवि य पावंति णिव्वाणं ॥ १०९ ॥
आराधनासार २०४
येषां भवंति जघन्या चतुर्विधाराधना हि क्षपकानाम् । सप्ताष्टभवान् गत्वा तेपि च प्राप्नुवंति निर्वाणम् ॥ १०९ ॥
पावंति प्राप्नुवंति लभते । के । तेवि य तेपि च । किं प्राप्नुवंति। णिव्वाणं निर्वाणं शाश्वतानंदस्थानं । किं कृत्वा प्राप्नुवंति। सत्तट्ठभवे गंतुं सप्तभवान् अष्टसंख्याकान् वा भवान् भवांतराणि गत्वा अतिक्रम्य गत्वेति क्त्वाप्रत्यया॑तः। स॒प्ताष्टभवा॑तरेष्वतीतेषु मोक्षमक्षयसुखमासादयंतीत्यर्थः । ते के इत्याह । जेसिं हुति जहण्णा
कोई भव्यात्मा क्षपक चार प्रकार की आराधना के सार-शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव परमात्मा की आराधना करके - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार की विकलता होने से पूर्ण रूप से पुण्यपाप रूप कर्म प्रकृतियों का नाश करने में असमर्थ होने से तथा पुण्य प्रकृति का अनुभाग विशेष होनेसे सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त होते हैं । अर्थात् कालादि सामग्री के अभाव में सर्वार्थसिद्धि में काल व्यतीत करते हैं, दूसरे भव में मोक्ष जाते हैं ॥ १०८ ॥
जो भव्य जीव उत्कृष्ट रूप से आराधना की आराधना करते हैं, वे उसी भव से मोक्ष चले जाते हैं, कर्मबन्ध के जाल को काटकर उसी भव से मुक्ति रमापति बन जाते हैं और जो मध्यम रूप से आराधना करते हैं वे सर्वार्थसिद्धि में जाकर दूसरे भवमें मोक्ष जाते हैं परन्तु जो साधक जघन्य रूप से आराधना करते हैं वे आराधना के सामर्थ्य से कितने भव व्यतीत करके मोक्ष में जाते हैं, ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं
जिन भव्यात्मा क्षपकों की चार प्रकार की आराधना जघन्य होती है वे सात-आठ भव में निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं ।। १०९ ॥
जिन क्षपकों की आराधना जघन्य होती है वे सात वा आठ भव के व्यतीत होने पर शाश्वत आनन्द के स्थान अक्षय मोक्ष सुखको प्राप्त कर लेते हैं।