Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 237
________________ आराधनासार- २०२ भावितः स्वभावितः पुनः पुनविनया स्वायत्तीकृतः सहजशुद्ध-स्वभावः आत्मभावो येन स भावितस्वभावः तस्य संबोधनं भो भावितस्वभाव क्षपक कडसु निस्सारय परलोकं प्रापय। कं । जीव स्वात्मानं । कस्मात् देहाउ देहात् शरीरात् विग्रहात्। किंकृत्वा पूर्व । होमम हत्वा मूलत: समुन्मूल्य। कौ। अट्टरुद्दे आर्तश्च रौद्रश्च आर्तरौद्रौ । पुनः किं कृत्वा। अप्पा परमप्पम्मि ठविऊण स्वात्मानं परमात्मनि स्थापयित्वा स्वात्मनः परमात्मनि स्थितीकरणं सोऽहमिति संस्कार एव। यदुक्तम् सोहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः । तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते ह्यात्मन: स्थितिम्।। यस्मानि तातरौद्रदुर्ध्यानः परमात्मज्ञानसंपन्नः अत एव क्षपक: कलंक मुक्त: बाह्याभ्यं तरपरिग्रहादिमलोज्झितः एतादृग्गुणोपेतः क्षपको निश्चितं सुगतिमात्मानं तच्चतुर्विधाराधनासामर्थ्यानयतीति भावार्थः ॥१०६॥ काललब्धिवशादाराधनाधीना भव्यास्तस्मिन्नेव भवांतरे सिद्धयंतीत्याह कालाई लहिऊणं छित्तूण य अट्ठकम्मसंखलयं । केवलणाणपहाणा भविया सिझंति तम्मि भवे ॥१०॥ कालादि लब्ध्वा छित्वा च अष्टकर्मशृंखलाम्। केवलज्ञानप्रधाना भव्या सिध्यंति तस्मिन् भवे ॥१०७।। जिसने बार-बार स्वकीय शुद्धात्मा की भावना से अपने आपको स्थिर किया है, स्वभाव में स्थिर होने का प्रयत्न किया है उसे भावित-स्वभावित कहते हैं। सम्बोधन में हे भावितस्वभाव क्षपक ! आर्त्त, रौद्र ध्यान को मूल से उखाड़कर फेंक दो और अपनी आत्मा को अपनी आत्मा में स्थिर करो। अपनी आत्मा को आत्मा में स्थिर करने का उपाय 'सोह' जो परमात्मा है. वहीं मैं हैं: यह संस्कार ही है। पूज्यपाद स्वामी ने समाधिशतक में कहा है- 'मैं परमात्मा-स्वरूप हूँ उसी में पुनः पुनः भावना है, ऐसी भावनासे संस्कार दृढ़ होता है और उसी दृढ़ संस्कार से आत्मा आत्मस्थिति को प्राप्त करता है। अर्थात् मैं परमात्मा-स्वरूप हूँ' इस प्रकार की भावना से जो दृढ़ संस्कार होता है, वही अपने स्वरूप में स्थिति का कारण है। इसलिए मैं अर्हन्त स्वरूप हूँ ऐसी निरन्तर भावना करनी चाहिए। जिसने आर्त रौद्र ध्यान का नाश कर दिया है, जो परमात्मज्ञान सम्पन्न है, ऐसा क्षपक कलंक से रहित बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह लक्षण मल से रहित, आदि गुणों से युक्त होकर चार प्रकार की आराधना के सामर्थ्य से अपनी आत्मा को सुगति में ले जाता है। ऐसा भावार्थ समझना चाहिए ।।१०६॥ चार प्रकार की आराधना के आराधक भव्य क्षपक काललब्धि के बल से उसी भव में वा एक-दो भव में सिद्ध हो जाते हैं, सो कहते हैं _चार प्रकार की आराधना के आराधक क्षपक काललब्धि को प्राप्त कर, आठ कर्मों की श्रृंखला को छेदकर केवलज्ञान प्रासकर उसी भव में मोक्ष में चले जाते हैं॥१०॥

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