Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 236
________________ आराधनासार-२०१ इति भावनया युक्त: अवगणय्य देहदुःखसंघातम्। जीन टेशन पिकप रडामिन कोशात् ।।१०५॥ हे क्षपक तुमं त्वं कडसु निस्सारय। कं। जीवो जीव । अत्र कर्मणि प्रथमा न युक्तेल्यार्षत्वाददोषः। कीदृशस्त्वं इतिभावनायुक्तः, अहं देहात्मको व्याध्याधिनिष्पीतसारो न भवामि किंतु परमानंदसांद्र: शुद्धश्चिदेवास्मि इत्येवंरूपभावनया संयुक्तः स्वात्मानं शरीरान्निष्काशय। किं कृत्वा पूर्वं । अवणिय देहदुक्खसंघायं अवगण्य। कं। देहदुःखसंघातं देहे शरीरे यानि ज्वरावेशातिसारोद्भवानि दुःखानि तेषां संधात: समूहः देहदुःखसंघातः तं देहदुःखसंघात । कमिव विग्रहाच्चेतनं पृथक् कुरु । खग्गुब्व कोसाओ खड्गमिव कोशात् असिमिव कोशात् खड्गपिधानकात् प्रत्याकारात् । यदुक्तम् शरीरतः कर्तुमनंतशक्ति विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेंद्रकोशादिव खड्गयष्टिं तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ।।१०५॥ पुन: शिक्षा प्रयच्छन्नाह हणिऊण अट्टरुद्दे अप्पा परमप्पयम्मि ठविऊण। भावियसहाउ जीवो कडसु देहाउ मलमुत्तो।।१०६॥ हत्त्वार्तरौद्रौ आत्मानं परमात्मनि स्थापयित्वा। भावितस्वभाव जीव निष्काशय देहात् मलमुक्तम् ।।१०६ ॥ हे क्षपक ! "आधि-व्याधियों के आस्पद् शरीर रूप में नहीं हूँ, परन्तु परमानन्द से भरित शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ।” इस प्रकार की भावना से स्वकीय आनन्द में मग्न होकर शरीर के सम्बन्ध से उत्पन्न ज्वर, अतिसार, भूख-प्यास, शीत, उष्ण आदि दुःखों का अनुभव मत करो। स्वकीय ज्ञानोपयोग को शरीर में मत लगाओ। आत्मानुभव के बल से स्वकीय आत्मा को शरीर से निकालो। शरीर से पृथक् अनुभव कर शरीर से पृथक् करने की चेष्टा करो। जिस प्रकार म्यान और तलवार पृथक्-पृथक हैं उसी प्रकार आत्मा और शरीर पृथक्-पृथक् हैं, ऐसा विचार कर शरीर से भिन्न आत्मा का अनुभव करो। अमितगति आचार्य ने कहा है "हे जिनेन्द्रदेव ! आपके प्रसाद से म्यान से तलवार के समान, रागादि दोष से रहित, अनन्त शक्ति शाली स्वकीय आत्मा को शरीर से पृथक् करने की शक्ति मुझे प्राप्त हो । अर्थात् हे भगवन् ! आपके प्रसाद से मैं शरीर से आत्मा को पृथक कर सकूँ, मुझे ऐसी शक्ति प्राप्त हो' ||१०५।। पुनः शिक्षा देते हुए आचार्य कहते हैं हे भावित स्वभाव वाले क्षपक ! आन-रौद्र ध्यान को छोड़कर और अपनी आत्मा को परमात्मा में स्थापित करके अपनी निर्मल आत्मा को शरीर से पृथक् करो यानी शरीर से पृथक् अनुभव करो ॥१०६॥

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