Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 226
________________ आराधनासार - १९१ तैरनेकविधैर्दु:खैस्तप्तो अयमात्मा। अमुमेवार्थं दृष्टातेन व्यक्तीकरोति । जहा जलं अग्गिजोएण यथा जल पानीयं शीतस्वभावमपि ज्वलनसंयोगेन तप्ती भवति तथाहमपीति विमृश्य। तथा जानासि त्वं मम भवभवे यच्च यादृक् च दुःखं, जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि । त्वं सर्वेश: सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम् ।। इति स्तुत्वा च देवं शरणं याया इति यावत् ।।९७ ।। इति चिदानंदभावनापरिणतः स्वस्वभावास्तित्वं धृवाणो ज्ञानामृते तत्सौख्यत्रान् भवतीत्याह ण गणेइ दुक्खसल्लं इयभावणभाविओ फुडं खवओ। पडिवज्जइ ससहावं हवइ सुही णाणसुक्खेण ॥९८ ।। न गणयति दुःखशल्यं इतिभावनाभावितः स्फुट क्षपकः । प्रतिपद्यते स्वस्वभाव भवति सुखी ज्ञानसौख्येन १।९८ ॥ ण गणेइ न गणयति। कोऽसौ । खवओ क्षपकः। किं न गणयति । दुक्खसल्लं दुःखशल्यं । कथं । फुद्धं स्फुटं प्रकटं। कीदृशः क्षपकः। इयभावणभाविओ इतिभावनाभावितः यदहमनादिकाले चतुर्गतिक्लेशगर्तवर्तस्थपुटे पंचप्रकारे संसारे भ्रामं भ्रामं यानि दुस्सहानि दुःखान्यनुभूतवा-नस्मि तेभ्योऽमूनि कर्मों के संयोग से संतम हूँ। ऐसा विचार कर कर्मानुभव से मन को हटाकर स्वानुभव में लगाना चाहिए। स्वानुभव के अभाव में इस जीव ने क्या-क्या दुःरा भोगे हैं, उनको केवली भगवान ही जानते हैं। एकीभावस्तोत्र में वादिराज मुनिराज ने कहा है “हे भगवन ! इस अपार संसार में भ्रमण करते हुए, भव-भव में मैंने जो और जैसे दु:ख भोगे हैं उनको आप साक्षात् जानते हैं, वे आपके ज्ञान में प्रतिबिम्बित हैं। यदि उनका मुझे स्मरण हो जाए तो शस्त्र के प्रहार के समान मेरे टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे। हे भगवन् ! तुम सर्वेश (सबके स्वामी) हो, तुम दयालु हो, मैं भक्ति से तुम्हारी शरण में आया हूँ। हे देव ! इस विषय में आप जो करोगे वही मुझे प्रमाण है- स्वीकार है" हे क्षपक! इस प्रकार स्तुति करके वीतराग प्रभु की शरण में जाओ-जाओ। उनके गुणों के स्मरण में लीन हो जाओ। इस प्रकार चिदानन्द स्वभाव में परिणत स्त्र स्वभाव के अस्तित्व को ध्रुव स्वीकार करने वाला क्षपक अनन्त सुख का भागी बनता है। सो कहते हैं “इस प्रकार की भावना से भावित जो क्षपक दुःख की शल्य को नहीं गिनता है, वह निश्चय से स्वस्वभाव को प्राप्त होता है और ज्ञानसुख से सुखी होता है ।।९८ ।। अनादि काल से चतुर्गति के क्लेश रूपी गाइडों से ऊबड़-खाबड़ पाँच प्रकार के परिवर्तन रूप इस संसार में भ्रमण कर-कर के मैंने जो दु:ख सहन किये हैं- दुस्सह दुःखों का अनुभव किया है, उसके समक्ष यह भूख

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