Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-१९५
ताव ण गिवडइ तावत्काल तावंत कालं न निर्व्यक्तीभवति न कर्मकलमान पृथग्भूतं भवति इत्यर्थः । किं तत् । जीवसुवण्णं दैदीप्यमानगुणत्वात जीवसुवर्णं चिदानंदकार्तस्वर । कथं । खु स्फुटं जाव ण तवग्गितत्तं यावत्कालं न तपोग्नितप्तं बाह्याभ्यतररूपं तप एव दुस्सहत्वादनिस्तपोग्निस्तेन तप्तं मुहुर्मुहुरावर्तितं । कस्यामधिकरणभूतायां क्षिप्त जीवसुवर्णं । सदेहमूसाए स्वदेहमूषायां स्वस्यात्मनो देहः स्वदेहः स्वदेह एव मूषा स्वदेहमूषा तस्यां स्वदेहमूषायां। केन करणभूतेन । णाणपवणेण ज्ञानपवनेन ज्ञानं भेदज्ञानं तदेव पवनो वायुः तेन ज्ञानपवनेन करणभूतेन । कथंभूतं जीवसुवर्ण चत्तकलंकं त्यक्तं कलकं कर्मरूपं येन तत् त्यक्तकलंक ज्ञानपबभेन भेदज्ञानपवनेन वर्धमानतेजसा तपोजातवेदसा तप्त देहमूषाया स्थितं जीवसुवर्ण कर्मकालिमानमपहाय विशुद्धो भवतीत्यर्थः । यदुक्तम्
तपोभिस्ताडिता एव जीवाः शिवसुखस्पृशः, मुशलैः खलु सिद्ध्यंति तंडुलास्ताडिता भृशम् । तपः सर्वाक्षसारंगवशीकरणवागुरा,
कषायतापमृद्वीका कर्मजीर्णहरीतकी ।।१०।। दुःखं देहस्य अहं च देहात्मको न भवामीति भावनया दुःखं सहस्वेति निर्दिशति
णाहं देहो ण मणो ण तेण मे अत्थि इत्थ दुक्खाई। समभावणाइ जुत्तो विसहसु दुक्खं अहो खवय ॥१०१।। ___ नाहं देहो न मनो न तेन मे अस्ति अत्र दुःखानि ।
समभावनया युक्तः विसहस्व दुःखमहो लपक ॥१०१ ।। __इस गाथा में आचार्य ने रूपक अलंकार में कथन किया है, सुवर्ण का दृष्टान्त दिया है। जिस प्रकार मूषा (साँचे) में सुवर्ण पाषाण को डालकर वायु से अग्नि को प्रज्वलित कर यदि नहीं तपाया जाता तो शुद्ध सुवर्ण
; उसी प्रकार जब तक स्वदेह रूपी मृषा में स्थित आत्मा रूपी सुवर्ण पाषाण को ज्ञान रूपी वाय से प्रज्वलित तपरूपी अग्नि से तपाया नहीं जाता है तो यह जीव रूपी सुवर्ण कर्मकलक से रहित शुद्धावस्था को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि भेदज्ञान रूपी वायु से प्रज्वलित सम्यक् तपरूपी अग्नि में तप करके ही आत्मा शुद्ध होता है। कहा भी है
"जैसे मुशल के द्वारा ताड़ित होकर तन्दुल शुद्ध होता है, अक्षत बनता है; उसी प्रकार तपसे ताड़ित ही जीव शिवसुख का स्पर्श करने वाला और शुद्ध हो जाता है। यह सम्यक् तप सर्व इन्द्रिय रूपी हरिणो को वश में करने के लिए जाल है। कषाय रूपो ताप को दूर करने के लिए. मुद्रीका (द्राक्षा-दाख) हैं और कर्म को जीर्ण करने के लिए हरीतकी (हरड़) है ||१०० ।।
दुःख शरीराश्रित है और मैं शरीरात्मक नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है, इस प्रकार की भावना के बल से हे क्षपक ! तू दुःरतों को सहन कर, ऐसा आचार्य निर्देश करते हैं.
__ "शरीर मेरा नहीं है, मन भी मेरा नहीं है इसलिए शारीरिक और मानसिक दुःख भी मेरे नहीं हैं।'' हे क्षपक ! इस प्रकार समता भाव से युक्त होकर दुःखों को सहन कर ॥१०१ ॥